________________ 350 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इस प्रकार की विकुर्वणा वैक्रियलब्धिसम्पन्न मायो (प्रमादी) अनगार करता है, अमायी (अप्रमादी) अनगार नहीं करता। किन्तु मायी (प्रमादी) अनगार किसी कारणवश यदि इस प्रकार की विकुर्वणा करके अन्तिम समय में अालोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह आराधक होता है। यदि वह इस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो विराधक होता है।' // तेरहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1 (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 656 (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र खण्ड 1 (पागमप्रकाशन समिति) श. 3 उ. 4 सू. 19, ए. 359-360 (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2272 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org