________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [349 (3) दर्शनीय वनखण्ड के समान रूपविकुर्वणा कर सकता है ? (4) रमणीय पुष्करिणी, वापी-सम रूपविकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? (5) पूर्वोक्त पुष्करिणी के समान कितने रूपों की बिकुर्वणा कर सकता है ? 1 __ कठिन शब्दार्थ-भिसं-कमलनाल, मृणाल / अवदालिय-तोड़ता हुअा। मुणालिया-नलिनी / उम्मज्जिय-डुवको लगाती हुई। किण्होभास—काले प्रकाश या प्राभास वाला / निकुरंबभूएसमूह के समान / सद्द नइयमधुरसर पादिया-(पक्षियों के) उन्नत शब्द, मधुर स्वर और निनाद से गूजती हुई। मायी (प्रमादी) द्वारा विकुर्वणा, अप्रमादी द्वारा नहीं 26. से भंते ! कि मायी विउब्वइ, अमायो विउवइ ? गोयमा! मायो विउव्वति, नो अमायो विउव्वति / [26 प्र.] भगवन् ! क्या (पूर्वोक्त रूपों की) विकुर्वणा मायी (अनगार) करता है, अथवा अमायी (अनगार) ? [26 उ.] गौतम ! मायी विकुर्वणा करता है, अमायी (अनगार) विकुर्वणा नहीं करता / उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना मरने से अनाराधकता 27. मायो णं तस्स ठाणस्स अणालोइया० एवं जहा ततियसए चउत्थुद्देसए (स० 3 उ०४ सु० 19) जाव अस्थि तस्स आराहणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / ॥तेरसमे सए नवमो उद्देसओ समत्तो // 13-9 // [27] मायी अनगार यदि उस (विकुर्वणा रूप प्रमाद-) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो उसके अाराधना नहीं (विराधना) होती है; इत्यादि तीसरे शतक के चतुर्थ उद्देशक (सू. 16) के अनुसार यावत्-पालोचना और प्रतिक्रमण कर ले तो उसके पाराधना होती है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन आराधक-विराधकका रहस्य-प्र ' में भावितात्मा अनगार की विविध प्रकार को वैक्रिय शक्ति की प्ररूपणा की गई है, किन्तु उद्देशक के उपसंहार में स्पष्ट बता दिया है कि 1. वियापण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणीयुक्त) भा. 2, पृ. 655-656 2. (क) भगवती, अ. वृत्ति (ख) भगवती. (हिन्दोविवेचन) भा. 5, पृ. 2270 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org