________________ 348] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [23 प्र.] (भगवन् ! ) जिस प्रकार कोई वनखण्ड हो, जो काला, काले प्रकाश वाला, नीला, नीले आभास वाला, हरा, हरे आभास वाला यावत् महामेघसमूह के समान प्रसन्नतादायक, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप (सुन्दरतम) हो; क्या इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी-(वैक्रियशक्ति से) स्वयं वनखण्ड के समान विकुर्वणा करके ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? [23 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। 24. से जहानामए पुक्खरणी सिया, चउक्कोणा समतोरा अणुपुश्वसुजाय० जाव' सदुन्नइयमहुरसरणादिया पासादीया 4, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा पोक्ख रणोकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा? हंता, उप्पतेज्जा। 24 प्र. (भगवन् ! ) जैसे कोई पुष्करिणी हो, जो चतुष्कोण और समतीर हो तथा अनुक्रम से जो शीतल गंभीर जल से सुशोभित हो, यावत विविध पक्षियों के मधुर स्वर-नाद नादि से युक्त हो तथा प्रसन्नतादायिनी, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो, क्या इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी (वैक्रियशक्ति से) उस पुष्करिणी के समान रूप को विकुर्वणा करके स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? [24 उ.] हाँ,गौतम ! वह उड़ सकता है / 25. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाइं पभू पोक्खरणीकिच्चगयाई रुवाई विउवित्तए ? 0 सेसं तं चेव जाव विउस्सति वा। [25 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार (पूर्वोक्त) पुष्करिणी के समान कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? [25 उ. (हे गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने इतने रूपों की विकुर्वणा की नहीं, वह करता भी नहीं और करेगा भी नहीं ; (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 21 से 25 तक) में भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति के सम्बन्ध में पांच रूपकों द्वारा प्रश्न उठाया गया है / भगवान् का सब में स्वीकृतिसूचक समाधान पूर्वोक्त सूत्रों के अतिदेशपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। पांच प्रश्न (1) क्या कमल की डंडी को तोड़ते हुए चलने वाले पुरुष की तरह तथारूप विक्रिया करके आकाश में उड़ सकता है ? (2) क्या पानी में डुबी और मुख बाहर निकली हुई मृणालिका की तरह रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? 1. 'जाब' पद सूचक पाठ-"अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला" अव०॥ 2. 'जाव' पद सूचक पाठ-.-"सुय-बरहिण-मयणसाय-कोंच-कोइल-कोज्जक-भिगारक-कोंडलक-जीवंजीवक-नंदीमह-कबिल पिंगलक्खग-कारंडग-चक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेग-सउणगणमिहणविरइयसह नइयमहरसरनाइय त्ति" अव. / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org