________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [347 20. एवं उप्पलहत्थगं, एवं पउमहत्थगं एवं कुमुदहथगं, एवं जाव' से जहानामए केयि पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव / / / [20 प्र.] इसी प्रकार उत्पल हाथ में लेकर, पद्म हाथ में लेकर एवं कुमुद हाथ में लेकर तथा जैसे कोई पुरुष यावत् सहस्रपत्र (कमल) हाथ में लेकर गमन करता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी...' इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [20 उ. (हाँ, गौतम ! ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 16 से 20 तक) में पूर्ववत् चक्र, छत्र, चर्म (चामर), रत्न, वज्र, वैडूर्य, रिष्ट आदि रत्न तथा उत्पल, पद्म, कुमुद, यावत् सहस्रपत्रकमल आदि हाथ में ले कर चलता है, उसी प्रकार तथाविध रूपों की विकुर्वणा करके ऊर्ध्व-प्राकाश में उड़ने को भावितात्मा अनगार की शक्ति की प्ररूपणा की गई है। कमलनाल तोड़ते हुए चलने वाले पुरुषवत अनगार को वैक्रियशक्ति 21. से जहानामए केयि पुरिसे भिसं प्रबहालिय प्रबद्दालिय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणे०, तं चेव। 21 प्र.] (भगवन् ! ) जिस प्रकार कोई पुरुष कमल की डंडो को तोड़ता-तोड़ता चलता है, क्या उसी प्रकार भावितारमा अनगार भी स्वयं इस प्रकार के रूप की विकुर्वणा करके ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है ? [21 उ.] (हां, गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। मृणालिका, वनखण्ड एवं पुष्करिणी बना कर चलने की वैक्रियशक्ति-निरूपण 22. से जहानामए मुणालिया सिया, उदगंसि कायं उम्मज्जिय उम्मज्जिय चिट्ठज्जा, एवामेव०, सेसं जहा वग्गुलीए। [22 प्र.] (भगवन् ! ) जैसे कोई मृणालिका (नलिनी) हो और वह अपने शरीर को पानी में डुबाए रखती है तथा उसका मुख बाहर रहता है; क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी....... इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [22 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सभी कथन वग्गूली के समान जानना चाहिए। 23. से जहानामए वणसंडे सिया किण्हे किण्होभासे' जाव निकुरुबभए पासादीए 4, एवामेव अणगारे वि भावियप्या वणसंडकिच्चगतेणं अप्पाणेणं उड्डं वेहासं उप्पएज्जा, सेसं तं चेव / 1. 'जाव' पद सूचक पाठ-नलिणहत्यगं सुभगहस्थग सोगंधियहत्यगं पुडरीयहत्थगं महापुडरीयहत्थगं सयवतहत्थगं ति" अ० 10 // 2 वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 655 3. 'जाव' पद सूचक पाठ-नीले नीलोभासे हरिए हरिओमासे सीए सीओभासे निद्ध निद्धोभासे तिब्वे तिब्दोभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए तिव्वे तिब्बच्छाए घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहनिउरु बभूए ति" अ० वृ०, पत्र 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org