________________ 328 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हुए हो'; इत्यादि जैसे सातवें शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 1-2) में कहा गया है, तदनुसार कहा; यावत् तुम एकान्त बाल (अज्ञानी) भी हो। 5. तए गं ते थेरा भगवंतो ते अन्न उत्थिए एवं वयासी—केणं कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे तिविह तिविहेणं अस्संजयविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [5 प्र.] इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'पार्यो ! किस कारण से हम विविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हैं ? 6. तए णं ते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासो-तुम्भे प्रज्जो ! अदिन्नं गेहह, प्रदिन्नं भुजह, अदिन्नं सातिज्जह / तए णं तुन्भे अदिन्नं गेण्हमाणा, अदिन्नं भुजमाणा, अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवह / [6 उ.] तदनन्तर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम अदत्त (किसी के द्वारा नहीं दिया हुमा) पदार्थ ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त का स्वाद लेते हो, अर्थात्-अदत्त (ग्रहणादि) की अनुमति देते हो। इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करते हुए, अदत्त का भोजन करते हुए, और अदत्त को अनुमति देते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो / 7. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केणं कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुजामो, अदिन्नं सातिरजामो, तए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा, जाव अदिन्नं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवामो ? [7 प्र.] तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'पार्यो ! हम किस कारण से (क्योंकर या कैसे) अदत्त का ग्रहण करते हैं, अदत्त का भोजन करते हैं, और प्रदत्त की अनुमति देते हैं, जिससे कि हम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् अदत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हैं ? 8. तए ण ते अन्नत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासो-तुम्हाणं प्रज्जो ! दिज्जमाणे अदिन्ने, पडिगहेज्जमाणे अपडिग्गहिए, निसिरिज्जमाणे प्रणिसळे, तुम्भे णं अज्जो ! दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ गं अंतरा केइ अवहरिज्जा, गाहावइस्स गं तं, नो खलु तं तुम्भं, तए णं तुम्मे अदिन्नं गेण्हह जाव प्रदिन्नं सातिज्जह, तए णं तुम्भे अदिन्नं गेल्हमाणा जाव एगंतबाला यावि भवह / 8 उ. इस पर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा- हे पार्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ, 'नहीं दिया गया', ग्रहण किया जाता हुआ, 'ग्रहण नहीं किया गया', तथा (पात्र में) डाला जाता हुया पदार्थ, 'नहीं डाला गया;' ऐसा कथन है; इसलिए हे आर्यो ! तुमको दिया जाता हुया पदार्थ, जब तक पात्र में नहीं पड़ा, तब तक बीच में से ही कोई उसका अपहरण कर ले तो तुम कहते हो--'वह उस गृहपति के पदार्थ का अपहरण हुआ;' 'तुम्हारे पदार्थ का अपहरण हुआ,' ऐसा तुम नहीं कहते / इस कारण से तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् अदत्त की अनुमति देते हो; अतः तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org