________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७ ] [329 6 तए गं ते थेरा भगवंतो ते अनउस्थिए एवं वयासी-नो खलु प्रज्जो ! अम्हे प्रदिन्नं गिहामो, प्रदिन्नं भुजामो, प्रदिन्नं सातिजामो, अम्हे णं प्रज्जो ! दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुजामो, दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा दिन्नं भुजमाणा दिन्नं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तमसए (स. 7 उ. 2 सु. 1 [2]) जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। [9. प्रतिवाद]—यह सुनकर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-- 'पार्यो ! हम अदत्त का ग्रहण नहीं करते, न अदत्त को खाते हैं और न ही प्रदत्त की अनुमति देते हैं। हे पार्यो ! हम तो दत्त (स्वामी द्वारा दिये गए) पदार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त भोजन को खाते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इसलिए हम दत्त का ग्रहण करते हुए, दत्त का भोजन करते हुए और दत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, पापकर्म के प्रतिनिरोधक, पापकर्म का प्रत्याख्यान किये हुए हैं। जिस प्रकार सप्तमशतक (द्वितीय उद्देशक सू. 1) में कहा है, तदनुसार हम यावत् एकान्तपण्डित हैं।' 10. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! तुम्हे दिन्नं गेहह जाव दिन्नं सातिज्जह, तए णं तुम्भे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया यावि भवह ? [10. वाद-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा–'तुम किस कारण (कैसे या किस प्रकार) दत्त का ग्रहण करते हो, यावत् दत्त की अनुमति देते हो, जिससे दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् तुम एकान्तपण्डित हो ?' 11. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं क्यासी~अम्हे णं अज्जो ! दिज्जमाणे दिन्ने, पडिगहेज्जमाणे पडिग्गहिए, निसिरिजमाणे निसठे। अम्हं णं प्रज्जो ! दिज्जमाणं पडिग्गहगं प्रसंपत्तं एल्थ णं अंतरा केइ प्रबहरेज्जा, अम्हंणं तं, णो खलु तं गाहावइस्स, तए णं प्रम्हे दिन्नं गेहामो दिन्नं भुजामो, दिन्नं सातिज्जामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा जाव दिन्नं सातिज्जमाणा तिधिहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। तुब्भे गं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह / 11. प्रतिवाद]-इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'पार्यो ! हमारे सिद्धान्तानुसार-दिया जाता हुआ पदार्थ, 'दिया गया'; ग्रहण किया जाता हुमा पदार्थ 'ग्रहण किया और पात्र में डाला जाता हुआ पदार्थ 'डाला गया' कहलाता है। इसीलिए हे आर्यो ! हमें दिया जाता हुमा पदार्थ हमारे पात्र में नहीं पहुँचा (पड़ा) है, इसी बीच में कोई व्यक्ति उसका अपहरण कर ले तो 'वह पदार्थ हमारा अपहृत हुना' कहलाता है, किन्तु 'वह पदार्थ गृहस्थ का अपहृत हुआ,' ऐसा नहीं कहलाता / इस कारण से हम दत्त का ग्रहण करते हैं, दत्त आहार करते हैं और दत्त की ही अनुमति देते हैं। इस प्रकार हम दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत् एकान्तपण्डित हैं, प्रत्युत, हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org