________________ 330] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 12. तए णं ते प्रश्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवामो ? [12 प्र.] तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा-प्रार्यो ! हम किस कारण से (कैसे) त्रिविध-त्रिविध""यावत् एकान्तबाल हैं ? 13. तए गं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासो-तुन्भे गं प्रज्जो ! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुजह, अदिन्नं साइज्जह, तए णं प्रज्जो ! तुम्मे अदिन्नं गे० जाव एगंतबाला यावि भवह / 13 उ.] इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-आर्यो ! तुम लोग अदत्त का ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते हो, और अदत्त की अनुमति देते हो; इसलिए हे आर्यो ! तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो। 14. तए णं ते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवंते एवं क्यासी–केण कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे प्रदिन्नं गेण्हामो जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [14 प्रतिवाद] तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा--- पार्यो ! हम क्योंकर अदत्त का ग्रहण करते हैं यावत् जिससे कि हम एकान्तबाल हैं ? 15. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउथिए एवं बयासी-तुब्मे णं प्रज्जो! दिज्जमाणे प्रदिन्ने तं चेव जाव गाहावइस्स णं तं, जो खलु तं तुम्भ, तए णं तुम्ने अदिन्नं गेहह, तं चेव जाव एगंतबाला यावि भवह। [15 प्रत्युत्तर]--यह सुन कर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहाआर्यो! तुम्हारे मत में दिया जाता हुया पदार्थ नहीं दिया गया' इत्यादि कहलाता है, यह सारा वर्णन पहले कहे अनुसार यहाँ करना चाहिए; यावत् वह पदार्थ गृहस्थ का है, तुम्हारा नहीं; इसलिए तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् पूर्वोक्त प्रकार से तुम एकान्तबाल हो। विवेचन-अन्यतीथिकों के साथ प्रदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णनप्रस्तुत 15 सूत्रों में अत्यतीथिकों द्वारा स्थविरों पर अदत्तादान को लेकर एकान्तबाल के आक्षेप से प्रारम्भ हुआ विवाद स्थविरों द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए प्रत्युत्तर तक समाप्त किया गया है। अन्यतीथिकों की भ्रान्ति-अन्यतीथिकों ने इस भ्रान्ति से स्थविर मुनियों पर आक्षेप किया था कि श्रमणों का ऐसा मत है कि दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया, ग्रहण किया जाता हुमा, नहीं ग्रहण किया गया और पात्र में डाला जाता हुया पदार्थ, नहीं डाला गया; माना गया है / किन्तु जब स्थविरों ने इसका प्रतिवाद किया और उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण 'चलमाणे चलिए' के सिद्धान्तानुसार किया, तब वे अन्यतीथिक निरुत्तर हो गए, उलटे उनके द्वारा किया गया आक्षेप उन्हीं के गले पड़ गया। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org