SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 932
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७ ] [331 ‘दिया जाता हया' वर्तमानकालिक व्यापार है, और 'दत्त' भूतकालिक है, अत: वर्तमान और भूत दोनों अत्यन्त भिन्न होने से दीयमान (दिया जाता हुआ) दत्त नहीं हो सकता, दत्त ही 'दत्त' कहा जा सकता है, यह अन्यतीथिकों की भ्रान्ति थी। इसी का निराकरण करते हुए स्थविरों ने कहा-'हमारे मत से क्रियाकाल और निष्ठाकाल, इन दोनों में भिन्नता नहीं है। जो 'दिया जा रहा है, वह 'दिया ही गया' समझना चाहिए / 'दीयमान' 'प्रदत्त' है, यह मत तो अन्यतीथिकों का है, जिसे स्थविरों ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया था।' स्थविरों पर अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्राक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद 16. तए णं ते अनउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह / [16 अन्य प्राक्षेप]- तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से कहाआर्यो ! (हम कहते हैं कि) तुम ही त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो! 17. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी—केण कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [17 प्रतिप्रश्न]-इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से (पुनः) पूछाआर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध यावत् एकान्तबाल हैं ? 18. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जों ! रीयं रोयमाणा पुढवि पेच्चेह अभिहणह वत्तेह लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावेह किलामेह उवद्दवेह, तए णं तुभे पुढवि पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय जाब एगंतबाला यावि भवह / [18 आक्षेप-तब उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से यों कहा-"पार्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (आक्रान्त करते) हो, हनन करते हो, पादाभिघात करते हो, उन्हें भूमि के साथ श्लिष्ट (संर्षित) करते (टकराते) हो; उन्हें एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे करते हो, जोर से स्पर्श करते हो, उन्हें परितापित करते हो, उन्हें मारणान्तिक कष्ट देते हो, और उपद्रवित करते-मारते हो। इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।" / 16. तए णं ते थेरा भगवंतों ते अन्नउथिए एवं वयासो-नो खलु अज्जो ! अम्हे रोयं रीयमाणा पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवहवेमो, अम्हे णं प्रज्जो ! रीयं रीयमाणा कायं वा जोगं वा रियं वा पडुच्च देसं वेसेणं वयामो, पएस पएसेणं वयामो, तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएसं पएसेणं वयमाणा नो पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव उबद्दवेमो, तए णं अम्हे पुढवि अपेच्चमाणा अणमिहणेमाणा जाव अणुवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुम्मे णं प्रज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव बाला यावि भवह / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 381 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy