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________________ 332 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 19 प्रतिवाद] तब उन स्थविरों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा- "मार्यो ! हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (कुचलते) नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं। हे पार्यो ! हम गमन करते हुए काय (अर्थात्-शरीर के लधुनीति-बड़ीनीति आदि कार्य) के लिए, योग (अर्थात्---ालान आदि की सेवा) के लिए, ऋत (अर्थात्-सत्य अप्कायादि-जीवसंरक्षणरूप संयम) के लिए एक देश (स्थल) से दूसरे देश (स्थल) में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं / इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते, यावत् उनको मारते नहीं / इसलिए पृथ्वीकाधिक जीवों को नहीं दबाते हुए, हनन न करते हुए यावत् नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, यावत् एकान्तपण्डित हैं / किन्तु हे प्रार्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो।" 20. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासी-केणं कारणेणं अन्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? 20 प्रतिप्रश्न ---इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"मार्यो ! हम किस कारण त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हैं ?" 21. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! रीयं रीयमाणा पुढवि पेच्चेह जाव उवहवेह, तए णं तुम्भे पुढवि पेच्चमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह। 21 प्रत्युत्तर] तत्र स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-"आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वोकायिक जीवों को दबाते हो, यावत् मार देते हो। इसलिए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए, यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।" 22. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! गम्ममाणे अगते, वीतिक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते? [22 प्रत्याक्षेप–इस पर वे अन्यतीथिक उन स्थविर भगवन्तों से यों बोले-हे आर्यो! तुम्हारे मत में गच्छन् (जाता हुआ), अगत (नहीं गया) कहलाता है; जो लांधा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया, कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने (पहुँचने) की इच्छा वाला पुरुष असम्प्राप्त (नहीं पहुँचा हुआ) कहलाता है। 23. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नास्थिए एवं वयासी-नो खलु प्रज्जो ! अम्हं गम्ममाणे अगए, वीइक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते, अम्हंणं प्रज्जो ! गम्ममाणे गए, वोतिक्कमिज्जमाणे वीतिक्कते रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते, तुभं णं अप्पणा चेव गम्भमाणे अगए वोतिक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिहं नगरं जाव प्रसंपत्ते। [23 प्रतिवाद] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहाआर्यो ! हमारे मत में जाता हुप्रा (गच्छन्), अगत (नहीं गया), नहीं कहलाता, व्यतिक्रम्यमाण (उल्लंघन किया जाता हुआ), अव्यतिक्रान्त (उल्लंघन नहीं किया) नहीं कहलाता। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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