________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७] [333 राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असंप्राप्त नहीं कहलाता। हमारे मत में तो, आर्यो ! 'गच्छन्' 'गत'; 'व्यतिक्रम्यमाण' 'व्यतिक्रान्त'; और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है। हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत में 'गच्छन्' 'अगत', 'व्यतिक्रम्यमाण' 'अव्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला असम्प्राप्त कहलाता है। 24. तए ण ते थेरा भगवंतो ते अन्नउथिए एवं पडिहणेति, पडिहणित्ता गइपवायं नाममज्झयणं पन्नवइंसु। [24] तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों को प्रतिहत (निरुत्तर) किया और निरुत्तर करके उन्होंने गतिप्रपात नामक अध्ययन प्रह विवेचन–स्थविरों पर अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्राक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत 9 सूत्रों (सू. 16 से 24) में अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्रत्याक्षेप से प्रारम्भ होकर यह चर्चा स्थविरों द्वारा भ्रान्तिनिवारणपूर्वक प्रतिवाद में समाप्त होती है / ___ अन्यतीथिकों को भ्रान्ति-पूर्व चर्चा में निरुत्तर अन्यतोथिकों ने पुनः भ्रान्तिवश स्थविरों पर आक्षेप किया कि आप लोग ही असंयत यावत् एकान्तबाल हैं, क्योंकि आप गमनागमन करते समय पृथ्वीकायिक जीवों की विविध रूप से हिंसा करते हैं, किन्तु सुलझे हुए विचारों के निर्ग्रन्थ स्थविरों ने धैर्यपूर्वक उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण किया कि हम लोग काय, योग और ऋत के लिए बहुत ही यतनापूर्वक गमनागमन करते हैं, किसी भी जीव की किसी भी रूप में हिंसा नहीं करते। इस पर पूनः अन्यतीथिकों ने प्राक्षेप किया कि आपके मत से गच्छन् अगत, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को सम्प्राप्त करना चाहने वाला असम्प्राप्त कहलाता है। इसका प्रतिवाद स्थविरों ने किया और आक्षेपक अन्यतीर्थिकों को ही उनकी भ्रान्ति समझा कर निरुत्तर कर दिया। __'देश' और 'प्रदेश' का अर्थ -- भूमि का बृहत् खण्ड देश है और लघुतर खण्ड प्रदेश है।" गतिप्रवाद और उसके पांच भेदों का निरूपण 25- कविहे गं भंते ! गइप्पवाए पण्णते? गोयमा ! पंचविहे गइम्पवाए पण्णत्ते, तं जहा-पयोगगती ततगती बंधणछेयणगती उववायगती विहायगती / एत्तो प्रारम्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियब्वं, जाव से तं विहायगई। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // अट्ठमसए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ [25 प्र.]-भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? [25 उ.]-गौतम ! गतिप्रपात पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-प्रयोगगति, ततगति, बन्धन-छेदनगति, उपपातगति और विहायोगति / 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 381 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org