________________ 334j [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यहाँ से प्रारम्भ करके प्रज्ञापनासूत्र का सोलहवाँ समग्र प्रयोगपद कहना चाहिए; यावत् 'यह विहायोगति का वर्णन हुआ'; यहाँ तक कथन करना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-गतिप्रपात और उसके पांच प्रकारों का निरूपण प्रस्तुत सूत्र में गतिप्रपात या गतिप्रवात और उसके 5 प्रकारों का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / गतिप्रपात के पांच भेदों का स्वरूप-गतिप्रपात या गतिप्रवाद एक अध्ययन है, जिसका प्रज्ञापनासूत्र के सोलहवें प्रयोगपद में विस्तृत वर्णन है। वहाँ इन पांचों गतियों के भेद-प्रभेद और उनके स्वरूप का निरूपण किया गया है / संक्षेप में पांचों गतियों का स्वरूप इस प्रकार है (1) प्रयोगगति-जीव के व्यापार से अर्थात्---१५ प्रकार के योगों से जो गति होती है, उसे प्रयोगगति कहते हैं / यह गति यहाँ क्षेत्रान्तरप्राप्तिरूप या पर्यायान्तरप्राप्तिरूप समझनी चाहिए। (2) ततगति-विस्तृत गति या विस्तार वाली गति को ततगति कहते हैं / जैसे कोई व्यक्ति ग्रामान्तर जाने के लिए रवाना हुआ, परन्तु ग्राम बहुत दूर निकला, वह अभी उसमें पहुँचा नहीं; उसकी एक-एक पैर रखते हुए जो क्षेत्रान्तरप्राप्तिरूप गति होती है, वह ततगति कहलाती है। इस गति का विषय विस्तृत होने से इसे 'ततगति' कहा जाता है। (3) बन्धन-छेदनगति-बन्धन के छेदन से होने वाली गति / जैसे शरीर से मुक्त जीव की गति होती है / (4) उपपातगति-उत्पन्न होने रूप गति को उपपातगति कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैंक्षेत्र-उपपात, भवोपपात, और नो-भवोपपात / नारकादिजीव और सिद्धजीव जहाँ रहते हैं, वह अाकाश क्षेत्रोपपात है, कर्मों के वश जीव नारकादि भवों (पर्यायों) में उत्पन्न होते हैं, वह भवोपपात है। कर्मसम्बन्ध से रहित अर्थात् नारकादिपर्याय से रहित उत्पन्न होने रूप गति को नो-भवोपपात कहते हैं / इस प्रकार की गति सिद्ध जीव और पुद्गलों में पाई जाती है। (5) विहायोगति-प्राकाश में होने वाली गति को विहायोगति कहते हैं।' // अष्टम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती सूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 381 (ख) प्रज्ञापनासूत्र पद 16 (प्रयोगपद), पत्रांक 325 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org