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________________ 444] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [24] तदनन्तर, हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुबायशाला से निकला और फिर नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में पाया / वहाँ ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया। 25. तए णं से विजये गाहावती मम एज्जमाणं पासति, पा० 2 हट्टतुटु० खिप्पामेव आसणाग्रो अब्भुट्ठति, खि० अ० 2 पादपीढायो पच्चोरुभति, पाद० प० 2 पाउयाओ ओमुयइ, पा० ओ० 2 एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, एग० क० 2 अंजलिमलियहत्थे मम सत्तट्ठपयाई अणुगच्छति, प्र० 2 ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति, 20 2 मम वंदति नमसति, मम व 2 ममं विउलेणं असणपाण-खाइम-साइमेणं 'पडिलाभेस्सामि' त्ति कट्ट, तु?, पडिलाभेमाणे वि तु?, पडिलाभिते वि तु?। [25] उस समय विजय गाथापति (अपने घर के निकट ) मुझे प्राते हुए देख अत्यन्त हषित एवं सन्तुष्ट हुा / वह शीघ्र ही अपने सिंहासन से उठा और पादपीठ से नीचे उतरा। फिर उसने पैर से खड़ाऊँ निकाली। एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। दोनों हाथ जोड़ कर सात-पाठ कदम मेरे सम्मुख पाया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके बन्दन-नमस्कार किया। फिर वह ऐसा विचार करके अत्यन्त संतष्ट मा कि मैं ग्राज भगवान को विपल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप (चविध) आहार से प्रतिलाभगा। वह प्रतिलाभ लेता हा भी संतुष्ट हो रहा था और प्रतिलाभिन होने के बाद भी सन्तुष्ट रहा / 26. तए णं तस्स विजयस्स गाहावतिस्स तेणं दव्वमुद्धण दायगसुद्धणं पडिगाहगसुद्धण तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध, संसारे परित्तोकते, गिर्हसि य से इमाइं पंच दिव्वाई पादुब्भूयाई, तं जहा-वसुधारा वुट्ठा 1, दसवण्णे कुसुमे निवातिते 2, चेलुक्खेवे कए 3, आहयाओ देवदुदुभीओ 4, अंतरा वि य णं आगासे 'अहो ! दाणे, अहो ! दाणे' त्ति 8 5 / [26] उस अवसर पर उस विजय गाथापति ने उस दान में द्रव्यशुद्धि से, दायक (दाता की। शुद्धि से और पात्रशुद्धि के कारण तथा तीन करण-मन-वचन-काया और कृत, कारित और अनुमोदित की शुद्धिपूर्वक मुझे प्रतिलाभित करने से उसने देव का अायुष्य-बन्ध किया, संसार परिमित (परित्त) किया। उसके घर में ये पांच दिव्य प्रादर्भूत (प्रकट) हए / यथा-(१) वसुधारा की वष्टि, (2) पांच वर्षों के फूलों की वृष्टि, (3) ध्वजारूप वस्त्र की वृष्टि, (4) देवदुन्दुभि का वादन और (5) अाकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' की घोषणा। 27. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेति--धन्ने ण देवाणुप्पिया ! विजये गाहावतो, कतत्थे गं देवाणुप्पिया! विजये गाहावती, कयपुन्ने ण देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया ! विजये माहावती, कया णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहायतिस्स, सुलझे देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजोवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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