________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकाश में धर्मचक्र चलता है, यावत् वे यहाँ सहस्राम्रवन उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचर रहे हैं / तथारूप अरहन्त भगवन्तों का नाम-गोत्र श्रवण करना भी महाफलदायक है, तो फिर उनके सम्मुख जाना, वन्दन करना, इत्यादि का तो कहना ही क्या ? इत्यादि प्रौपपातिकसत्र के उल्लेखानुसार विचार किया; यावत एक भी आर्य धामिक सवचन का सनना भी महाफलदायक है, तो फिर विपुल अर्थ के ग्रहण करने का तो कहना ही क्या ! अतः मैं श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के पास जाऊँ, वन्दन-नमस्कार करू, यावत् पर्युपासना करूं / यह मेरे लिए इस भव में और परभव में, यावत् श्रेयस्कर होगा।" ___ इस प्रकार का विचार करके वे जहाँ तापसों का मठ था वहाँ पाए और उसमें प्रवेश किया / फिर वहाँ से बहुत-से लोढी, लोह-कड़ाह यावत् छबड़ी-सहित कावड़ यादि उपकरण लिए और उस तापसमठ से निकले / वहाँ से विभंगज्ञान-रहित वे शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होते हुए, जहाँ सहस्राम्रवन उद्यान था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पाए / श्रमण भगवान् महावीर के निकट पाकर उन्होंने तीन वार प्रादक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दनानमस्कार किया और न अतिदूर, न अतिनिकट, यावत् हाथ जोड़ कर भगवान् की उपासना करने लगे। 31. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तोसे य महतिमहालियाए जाव आणाए आराहए भवति / [31] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने शिवराजर्षि को और उस महती परिषद् को धर्मोपदेश दिया कि यावत्- "इस प्रकार पालन करने से जीव याज्ञा के पाराधक होते हैं।" 32. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म जहा खंदओ (स. 2 उ. 1 सु. 34) जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं प्रवक्कमइ, उ० प्र० 2 सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातियगं एगते एडेइ, ए० 2 सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, स० क० 2 समणं भगवं महावीरं एवं जहेब उसभदत्ते (स. 9 उ. 33 सु. 16) तहेव पव्वइओ, तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेब सव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / |32] तदनन्तर वे शिवराजर्षि श्रमण भगवान महावीरस्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण कर ; (शतक 2, उ. 1, सू. 34 में उल्लिखित) स्कन्दक की तरह, यावत् उत्तरपूर्वदिशा (ईशानकोण) में गए और लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् छबड़ी सहित कावड़ आदि तापसोचित उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल दिया। फिर स्वयमेव पंचष्टि लोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास (श. 6, उ. 33, सू. 16 में कथित) ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की ; तथैव ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया और उसी प्रकार यावत् वे शिवराजर्षि समस्त दुःखों से मुक्त हुए / विवेचन-शिवराजर्षि द्वारा निर्ग्रन्थदीक्षा और मुक्तिप्राप्ति प्रस्तुत तीन सूत्रों (31-3233) में शिवराजर्षि से सम्बन्धित निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया है—(१) भगवान् महावीर की . महिमा जानकर अपने तापसोचित उपकरणों के साथ भगवान् के निकट गए / दर्शन, वन्दन-नमन और पर्युपासन किया। (2) धर्मोपदेश-श्रवण एवं प्राज्ञाराधक बनने का विचार / (3) तापसोचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org