________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [63 असंज्ञी का प्रायुष्य प्रसंज्ञी द्वारा ही उपजित किया हुआ है। यद्यपि असंज्ञी को मनोलब्धि विकसित न होने से उसे अच्छे-बुरे का भान नहीं होता, मगर उसके आन्तरिक अध्यवसाय को सर्वज्ञ तीर्थकर तो हस्तामलकवत् जानते ही हैं कि वह नरकायु का उपार्जन कर रहा है या देवायु का? जैसे भिक्ष से सम्बन्धित पात्र का भिक्षुपात्र कहते हैं, वैसे ही असंज्ञी से सम्बन्धित आयु को असंज्ञी-आयुष्य कहते हैं। __तिथंच और मनुष्य के आयुष्य को पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग युगलियों की अपेक्षा से समझना चाहिए। // प्रथम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र प्र० वृत्ति, पत्रांक 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org