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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२१-प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव क्या नरक का आयुष्य उपार्जन करता है, तिर्यञ्चयोनिक का आयुष्य उपार्जन करता है, मनुष्य का प्रायुष्य भो उपार्जन करता है या देव का आयुष्य उपार्जन करता है ? [21. उ.] हाँ गौतम! वह नरक का प्रायुष्य भी उपार्जन करता है, तिर्यञ्च का आयुष्य भी उपार्जन करता है, मनुष्य का प्रायुष्य भी उपार्जन करता है और देव का आयुष्य भी उपार्जन करता है। नारक का प्रायुष्य उपार्जन करता हुआ असंजीजीव जघन्य दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है। तिर्यञ्चयोनि का आयुष्य उपार्जन करता हुआ असंञी जीव जघन्य अन्तमुहूर्त का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है / मनुष्य का आयुष्य भी इतना हो उपार्जन करता है और देव प्रायुष्य का उपार्जन भी नरक के अायुष्य के समान करता है। 22. एयस्स णं भंते ! नेरइयअसणिग्राउयस्स तिरिक्खजोणिय प्रसण्णिमाउयस्स मणुस्सअसण्णिमाउयस्स देवप्रसणिग्राउयस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? | गोयमा ! सव्वत्योवे देवप्रसणिग्राउए, मगुस्सप्रसणिआउए असंखेज्जगुणे, तिरियजोणियअसण्णिग्राउए असंखज्जगुणे, नेरइयग्रसणिआउये असंखेज्जगुणे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति // ।बितिम्रो उद्दे सो समत्तो।। | 22. प्र.] हे भगवन् ! नारक-असंशो-आयुष्य, तिर्यञ्च-असंज्ञी-आयुष्य, मनुष्य-प्रसंज्ञीआयुष्य और देव-असंज्ञी-पायुष्य ; इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [22. उ.] गोतम ! देव-असंजी-आयुष्य सबसे कम है, उसको अपेक्षा मनुष्य-असज्ञो-आयुष्य असंख्यातगुणा है, उससे तिर्यञ्च असंज्ञो-पायुष्य असंख्यात-गुणा है और उससे भी नारक-असंज्ञीआयुष्य असंख्यातगुणा है। 'हे भगवन् ! (जैसा आप फरमाते हैं,) वह इसी प्रकार है, वह इसी प्रकार है।' ऐसा कहकर गौतम स्वामी संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन-असंज्ञी-आयुष्य : प्रकार, उपार्जन एवं अल्पबहुत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों (20-21-22) में असंज्ञो जीव के आयुष्य के प्रकार, उपार्जन और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। असंज्ञी-प्रायुष्य वर्तमानभव में जो जीव विशिष्ट संज्ञा से रहित है, वह परलोक के योग्य जो प्रायुष्य बांधता है, उसे असंज्ञी-आयुष्य कहते हैं। असंज्ञो द्वारा प्रायुष्य का उपार्जन या वेदन? -श्री गौतम स्वामी ने असंज्ञो जोवों के प्रायुष्य के सम्बन्ध में दूसरा प्रश्न उठाया है, जिसका प्राशय यह है कि असंज्ञी जोव मन के अभाव में आयुष्य का उपार्जन कैसे कर सकता है ? अतः नरक, तिर्यञ्च आदि का प्रायुष्य असंज्ञो द्वारा उपार्जन किया जाता है या सिर्फ भोगा (वेदन किया जाता है ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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