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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] आजीविक-(१) एक खास तरह के पाखण्डी, (2) नग्न रहने वाले गोशालक के शिष्य (3) लब्धिप्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति प्राप्त करने या महिमा-पूजा के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले और (4) अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखलाकर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले / प्राभियोगिक-विद्या और मंत्र आदि का या चूर्ण आदि के योग का प्रयोग करना और दूसरों को अपने वश में करना अभियोग कहलाता है। जो साधु व्यवहार से तो संयम का पालन करता है, किन्तु मंत्र, तंत्र, यंत्र, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, चूर्ण आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे को आकर्षित करता है, वशीभूत करता है, वह आभियोगिक कहलाता है। दर्शनभ्रष्टसलिंगी-साधु के वेष में होते हुए भी दर्शनभ्रष्ट-निह्नव दर्शन भ्रष्टस्ववेषधारी है। ऐसा साधक आगम के अनुसार क्रिया करता हुआ भी निह्नव होता है, जिन-दर्शन से विरुद्ध प्ररूपणा करता है, जैसे जामालि / ' असंज्ञी प्रायुष्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर-- 20. कतिविहे णं भंते ! प्रसणियाउए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउम्विहे असण्णिआउए पण्णत्ते / तं जहा–नेरइय-असण्णिप्राउए 1, लिरिक्खजोणिय-प्रसणिप्राउए 2, मणुस्सप्रसणिग्राउए 3, देवप्रसण्णिपाउए 4 / [20. प्र. भगवन् ! असंज्ञी का आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? [20. उ.] गौतम ! असंज्ञी का आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार हैनैरयिक-असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च-असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य-असंज्ञी आयुष्य और देव-असंज्ञी आयुष्य / 21. प्रसण्णी गं भंते 1 जीवे कि नेरइयाउयं पकरेति, तिरिक्ख-जोणियाउयं पकरेइ, मणस्साउयं पकरेइ, देवाउयं पकरेइ ? हता, गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोगियाउयं पि पकरेइ, मणुस्ताउयं पि पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ / नेरइयाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जहभागं पकरेति / तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं अंतोमुहुत, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं पकरेइ / मणुस्साउए वि एवं चेव / देवाउयं पकरेमाणे जहा नेरइया / 1. (क) भगवती सूत्र अ० वत्ति, पत्रांक 49-50 (ख) जो संजो वि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ / सो तबिहेसु गच्छद सुरेसु भइयो चरणहीणो / / णाणस्स केवलोणं धम्मायरियस्त सव्व साहणं / माई अवनवाई किबिसियं भावणं कुणइ / / (घ) कोऊय-भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजोवी / इडिढरसमायगरुग्रो अहियोग भावणं कुणइ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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