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________________ 60 // [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यह अर्थ यहां संगत नहीं, क्योंकि असंयत भव्य द्रव्य देव का उत्कृष्ट उत्पाद वेयक तक कहा है, जब कि अविरत सम्यग्दृष्टि तो दूर रहे, देशविरतश्रावक (संयमासंयमी) भी अच्युत देवलोक से आगे नहीं जाते। (3) इसी प्रकार असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ असंयत निह्नव भी ठीक नहीं, क्योंकि इनके उत्पाद के विषय में इसी सूत्र में पृथक् निरूपण है। (4) अतः असंयत भव्यद्रव्यदेव का स्पष्ट अर्थ है—जो साधु-समाचारी और साध्वाचार का पालन करता हो, किन्तु जिसमें प्रान्तरिक (भाव से) साधुता न हो केवल द्रव्यलिंगधारी हो, ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि / यद्यपि असंयत भव्यद्रव्यदेव में महामिथ्यादर्शनरूप मोह की प्रबलता होती है, तथापि जब वह चक्रवर्ती आदि अनेक राजा-महाराजाओं द्वारा साधुओं को वन्दन-नमन, पूजा, सत्कार-सम्मान आदि करते देखता है तो सोचता है कि मैं भी साधु बन जाऊँ तो मेरी भी इसी तरह वन्दना, पूजा-प्रतिष्ठा प्रादि होने लगेगी; फलत: इस प्रकार को प्रतिष्ठामोह की भावना से वह श्रमणव्रत पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं। उसको श्रद्धा प्रव्रज्या तथा क्रियाकलाप पूर्ण है, वह आचरण भी पूर्णतया करता है, परन्तु चारित्र के परिणाम से शून्य होने से असंयत है। अविराधित संयमी-दीक्षाकाल से लेकर अन्त तक जिस का चारित्र कभी भंग न हुआ हो, वह अखण्डित संयमी है / इसे आराधक संयमी भी कहते हैं / विराधित संयमी-इसका स्वरूप अविराधित संयमी से विपरीत है। जिसने महावतों का ग्रहण करके उनका भलीभांति पालन नहीं किया है, संयम की विराधना की है, वह विरााधित संयमी, खण्डित संयमी या विराधक संयमी है। अविराधित संयमासंयमी-जो देशविरति ग्रहण करके अन्त तक अखण्डित रूप से उसका पालन करता है उसे आराधक संयमासंयमी कहते हैं / विराधित संयमासंयमी—जिसने देविरति ग्रहण करके उसका भली भाँति पालन नहीं किया है, उसे विराधित संयमासयमी कहते हैं। असंज्ञी जीव-जिसके मनोलब्धि नहीं है, ऐसा असंज्ञी जीव अकाम-निर्जरा करता है, इस कारण वह देवलोक में जा सकता है / तापस-वृक्ष से गिरे हुए पत्तों आदि को खाकर उदरनिर्वाह करने वाला बाल-तपस्वी / कान्दपिक—जो साधु हंसोड़-हास्यशील हो / ऐसा साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्यशील होने के कारण अनेक प्रकार की विदूषक-की-सी चेष्टाएँ करता है। अथवा कन्दर्प अर्थात् कामसम्बन्धी वार्तालाप करने वाला साधु भी कान्दर्पित कहलाता है। चरकपरिवाजक—गेरूए या भगवे रंग के वस्त्र पहनकर धाटी (सामुहिक भिक्षा) द्वारा आजीविका करने वाले त्रिदण्डी, कुच्छोटक आदि अथवा कपिल ऋषि के शिष्य / किल्विषिक-जो ज्ञान, केवली, धर्माचार्य और सब साधुओं का अवर्णवाद करता हैं और पापमय भावना वाला है, वह किल्विषिक साधु है / किल्विषिक साधु व्यवहार से चारित्रवान भी होता है। तिर्यञ्च-देशविरति श्रावकवत का पालन करने वाले घोड़े, गाय आदि। जैसे---नन्दनमणिहार का जीव मेंढक के रूप में श्रावकवती था / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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