________________ 538] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 22. पुढविकाइए णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी०? एवं चेव। [22 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, प्रौदारिक शरीर को बांधता हुआ अधिकरणी है या अधिकरण? [22 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 23. एवं जाक मणुस्से। [23] इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए / 24. एवं वेउब्वियसरीरं पि / नवरं जस्स अस्थि / [24] इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी जानना चाहिए / विशेषता यह कि जिन जीवों के जो शरीर हों, उनके वहीं कहना चाहिए। 25. [1] जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी० पुच्छा। गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। [25-1 प्र.] भगवन् ! आहारक शरीर बांधता हुआ जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? [25-1 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी / [2] से केणढणं जाव अधिकरणं पि? गोयमा ! पमादं पडुच्च / से तेण?णं जाव अधिकरणं पि / 25-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से उसे अधिकरणी और अधिकरण कहते हैं ? [25-2 उ.] गौतम ! प्रमाद की अपेक्षा से वह अधिकरणी और अधिकरण है। 26. एवं मणुस्से वि / [26] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में जानना चाहिए। 27. तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सव्वजीवाणं भाणियब्वं / [27] तैजसशरीर का कथन औदारिक शरीर के समान जानना चाहिए / विशेष यह है कि तेजसशरीर-सम्बन्धी वक्तव्य सभी जीवों के विषय में कहना चाहिए। 28. एवं कम्मगसरीरं पि। [28] इसी प्रकार कार्मण शरीर के विषय में भी जानना चाहिए / 29. जीवे गं भंते ! सोतिदियं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरणं ? एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं पि भाणियव्वं / नवरं जस्स अस्थि सोतिदियं / [26 प्र. भगवन् ! श्रोत्रन्द्रिय को बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण? | 26 उ.] गौतम ! औदारिक शरीर के वक्तव्य के समान श्रोत्रेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए / परन्तु (ध्यान रहे) जिन जीवों के श्रोत्रेन्द्रिय हो, उनकी अपेक्षा ही यह कथन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org