________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [537 'तदुभय-प्रयोगनिर्वतित' कहलाता है / स्थावर आदि जीवों में बचनादि का व्यापार नहीं होता, तथापि उन में अविरतिभाव की अपेक्षा से परप्रयोग-निवर्तित अधिकरण कहा गया है / ' शरीर, इन्द्रिय एवं योगों को बांधते हुए जीवों के विषय में अधिकरणी-अधिकरणविषयकप्ररूपणा 18. कति णं भंते ! सरीरमा पन्नता? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए जाव कम्मए। {18 प्र.) भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? 18 उ.] गौतम ! शरीर पाँच प्रकार के कहे गए हैं / यथा-औदारिक यावत् कार्मण / 19. कति णं भंते ! इंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा-सोतिदिए जाव फासिदिए / [19 प्र. भगवन् ! इन्द्रियां कितनी कही गई हैं ? [19 उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ पांच कही गई हैं। यथा--श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय / 20. कतिविहे णं भंते ! जोए पन्नते ? गोयमा ! तिविहे जोए पन्नते, तं जहा-मणजोए वइजोए कायजोए / [20 प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [20 उ.] गौतम ! योग तीन प्रकार के कहे गए हैं / यथा----मनोयोग, बचनयोग और काययोग ! 21. [1] जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरण ? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / [21.1 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता (निष्पन्न करता) हुआ जीव अधिकरणी है या अधिकरण? [21-1 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ अधिकरणी वि, अधिकरणं पि ? गोयमा ! अविरति पडुच्च / से तेण?णं जाव अधिकरणं पि / [21-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है ? [21-2 उ.] गौतम ! अविरति के कारण वह यावत् अधिकरण भी है / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 699 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5 पृ. 2512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org