________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] . [223 4. एवं जहा कसायाताए वत्तम्वया मणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहि समं माणियवा।' [4] जिस प्रकार कषायात्मा के साथ अन्य छह आत्माओं के पारस्परिक सम्बन्ध की वक्तव्यता कही. उसी प्रकार योगात्मा के साथ भी आगे की पांच पात्माओं के परस्पर सम्बन्ध की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 5. जहा दवियायाए बत्तब्वया भणिया तहा उवयोगायाए वि उवरिलहि सम भाणिया / [5] जिस प्रकार द्रव्यात्मा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार उपयोगात्मा की वक्तव्यता भी प्रागे की चार प्रात्माओं के साथ कहनी चाहिए। 6. [1] जस्स नाणाया तस्स दंसणाया नियमं अस्थि, जस्स पुण दसणाया तस्स गाणाया भयणाए। [6-1] जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके दर्शनारमा अवश्य होती है और जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा भजना से होती है। [2] जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अस्थि / [6-2] जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा भजना से होती है और जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा अवश्य होती है। [3] जाणाया य वोरियाया य दो वि परोप्परं भयणाए / [6-3] ज्ञानात्मा और वीर्यात्मा इन दोनों का परस्पर-सम्बन्ध भजना से कहना चाहिए। 7. जस्स दसणाया तस्स उरिमाप्रो दो वि भयणाए, जस्स युण ताओ तस्स दंसणाया नियम अस्थि / [7] जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा, ये दोनों भजना से होती हैं; किन्तु जिसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा होती है, उसके दर्शनारमा अवश्य होती है। 8. जस्स चरित्ताया तस्स बीरियाया नियम अस्थि, जस्स पुण धोरियाया तस्स चरिताया सिय अस्थि सिय नथि। [-] जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है, किन्तु जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं भी होती। विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों में अष्टविध आत्माओं के परस्पर सम्बन्ध की अर्थात् एक प्रकार में दूसरा प्रकार रहता है या नहीं ? इसकी प्ररूपणा की गई है। वाचनान्तर-मुल पाठ डम प्रकार है-जोगाया य चरित्ताया य दोवि परोप्परं भइयव्वानो। किन्तु वाचनान्तर इस प्रकार है-जस्स चरिताया तस्स जोगाया नियम ति। तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्त्वात्. तस्य च योगाविनाभावित्वातु, यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमात इत्युच्यते / ' --भगवती. प्र. व. पत्र 591 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org