________________ 294 / [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तम नरक तक में और असंख्य द्वीप समुद्रों में रहे हुए कितने ही रूपी द्रव्य और उनके कतिपय पर्याय विभंगज्ञान के विषय हैं, और वे मनःपर्यायज्ञान के विषयापेक्षया के अनन्तगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अवधिज्ञानपर्याय अनन्तगुणे इसलिए हैं कि उसका विषय समस्त रूपी द्रव्य और प्रत्येक के द्रव्य असंख्यपर्याय हैं / उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणा यों हैं कि श्रुत-अज्ञान के विषय सभी मूर्त-अमूर्त द्रव्य एवं सर्वपर्याय हैं / तदपेक्षा श्रुतज्ञानपर्याय विशेषाधिक यों हैं कि श्रुत-प्रज्ञान-अगोचर कतिपय पदार्थों को भी श्रुतज्ञान जानता है। तदपेक्षया मति-अज्ञानपर्याय अनन्तगुणे यों हैं कि उसका विषय अनभिलाप्यवस्तु भी है। उनसे मतिज्ञान के पर्याय विशेषाधिक यों हैं कि मति-अज्ञान के अगोचर कितने ही पदार्थों को मतिज्ञान जानता है और उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे इसलिए हैं कि केवलज्ञान सर्वकालगत समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को जानता है।' // अष्टम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 362 से 364 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org