________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 293 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-ज्ञान और प्रज्ञान के पर्यायों का तथा उनके अल्पबहुत्व का प्ररूपण--प्रस्तुत 7 सूत्रों (सू. 156 से 162 तक) में पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान की पर्यायों तथा उनके अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / पर्याय : स्वरूप, प्रकार एवं परस्पर अल्पबहुत्व-भिन्न-भिन्न अवस्थानों के विशेष भेदों को 'पर्याय' कहते हैं / पर्याय के दो भेद हैं-स्वपर्याय और पर-पर्याय / क्षयोपशम की विचित्रता से मतिज्ञान के अवग्रह आदि अनन्त भेद होते हैं, जो स्वपर्याय कहलाते हैं। अथवा मतिज्ञान के विषयभूत ज्ञेयपदार्थ अनन्त होने से उन ज्ञेयों के भेद से ज्ञान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं / इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं / अथवा केवलज्ञान द्वारा मतिज्ञान के अंश (टुकड़े) किये जाएँ तो भी अनन्त अंश होते हैं। इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। मतिज्ञान के सिवाय दूसरे पदार्थों के पर्याय 'परपर्याय' कहलाते हैं। मतिज्ञान के स्वपर्यायों का बोध कराने में तथा परपर्यायों से उन्हें भिन्न बतलाने में प्रतियोगी रूप से उनका उपयोग है। इसलिए वे मतिज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं। श्रुतज्ञान के भी स्वपर्याय और परपर्याय अनन्त हैं। उनमें से श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुतअनक्षरश्रुत आदि भेद स्वपर्याय कहलाते हैं, जो अनन्त हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण तथा श्रुतज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त होने से श्रुतज्ञान के (श्रतानुसारी बोध के) भेद भी अनन्त हो जाते हैं। अथवा केवलज्ञान द्वारा श्रुतज्ञान के अनन्त अंश होते हैं, वे भी उसके स्वपर्याय ही हैं। उनसे भिन्न पदार्थों के विशेष धर्म, श्रुतज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं / अवधिज्ञान के स्वपर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि उसके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिक), इन दो भेदों के कारण, उनके स्वामी देव और नारक तथा मनुष्य और तिर्यञ्च के, असंख्येय क्षेत्र और काल के भेद से, अनन्त द्रव्य-पर्याय के भेद से एवं केवलज्ञान द्वारा उसके अनन्त अंश होने से अवधिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं। इसी प्रकार मन:पर्याय और केवलज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त होने से तथा उनके अनन्त अंशों की कल्पना आदि से अनन्त स्वपर्याय होते हैं / पर्यायों के अल्पबहुत्व की समीक्षा- यहाँ जो पर्यायों का अल्पबहुत्व बताया गया है, वह स्वपर्यायों की अपेक्षा से समझना चाहिए; क्योंकि सभी ज्ञानों के स्वपर्याय और परपर्याय मिलकर समुदित रूप से परस्पर तुल्य हैं। सबसे अल्प मनःपर्यायज्ञान के पर्याय इसलिए हैं कि उसका विषय केवल मन ही है। मनःपर्यायज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय द्रव्य और पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण होने से अवधिज्ञान के पर्याय उससे अनन्तगुणे हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। क्यों कि उसका विषय रूपी-अरूपीद्रव्य होने से वे अनन्तगुणे हैं। उनसे पाभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, क्योंकि उनका विषय अभिलाप्य और अनभिलाप्य पदार्थ होने से वे उनसे अनन्तगुणे हैं, और केवलज्ञान के पर्याय उनसे अनन्तगुणे इसलिए हैं कि उसका विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय हैं / इसी प्रकार अज्ञानों के भी अल्पबहुत्व की समीक्षा कर लेनी चाहिए। ज्ञान और प्रज्ञान के पर्यायों के सम्मिलित अल्पबहुत्व में सबसे अल्प मन:पर्यायज्ञान के पर्याय हैं, उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्तगुण हैं, क्योंकि उपरिम (नवम) वेयक से लेकर नीचे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org