________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] ग्रहण करना है; यदि समस्त शरीर से वस्त्र के एक भाग को ग्रहण किया तो सर्व से एकदेश का ग्रहण हुआ; सारे शरीर से सारे वस्त्र को ग्रहण किया तो सर्व से सर्व का ग्रहण करना हुआ / प्रस्तुत प्रकरण में देश का अर्थ है---आत्मा का एक देश और एक समय में ग्रहण किये जाने वाले कर्म का एकदेश / अगर अात्मा के एकदेश से कर्म का एकदेश किया तो यह एकदेश से एकदेश की क्रिया की / अगर आत्मा के एकदेश से सर्व कर्म किया, तो यह देश से सर्व की क्रिया हुई। सम्पूर्ण प्रात्मा से कर्म का एकदेश किया, तो सर्व से देश की क्रिया हुई और सम्पूर्ण आत्मा से समग्र कर्म किया तो सर्व से सर्व की क्रिया हुई। गौतम स्वामी के इस चतुर्भगीय प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि गौतम ! कांक्षामोहनीय कर्म सर्व से सर्वकृत है, अर्थात् --समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कांक्षामोहनीय कर्म किया हुआ है। पूर्वोक्त चौभंगी में से यहाँ चौथा भंग ही ग्रहण किया गया है। कर्मनिष्पादन की क्रिया त्रिकाल-सम्बन्धित-कर्म क्रिया से निष्पन्न होता है और क्रिया तीनों कालों से सम्बन्धित होती है, इसलिए त्रिकाल सम्बन्धी क्रिया से कर्म लगते हैं। इसी कारण मोहनीय कर्म के सम्बन्ध में त्रिकालसम्बन्धी प्रश्नोत्तर है। आयुकर्म के सिवाय जब तक किसी कर्म के बन्ध का कारण नष्ट नहीं हो जाता, तब तक उस कर्म का बन्ध होता रहता है / कांक्षामोहनीयकर्म के विषय में भी यही नियम समझना चाहिए। 'चित' प्रादि का स्वरूप : प्रस्तुत सन्दर्भ में-पूर्वोपार्जित कर्मों में प्रदेश और अनुभाग की एक बार वृद्धि करना अर्थात्-संक्लेशमय परिणामों से उसे एक बार बढ़ाना चित (चय किया) कहलाता है। जैसे---किसी आदमी ने भोजन किया उसमें उसे सामान्य क्रिया लगी, किन्तु बाद में वह रागभाव से प्रेरित होकर उस भोजन को प्रशंसा करने लगा, यह चय करना हुमा / बार-बार तत्सम्बन्धी चय करता उपचय (उपचित) कहलाता है। किसी-किसी प्राचार्य के मतानुसार कर्मपुद्गलों का ग्रहण करना 'चय' कहलाता है और अबाधाकाल समाप्त होने के पश्चात् गृहीत कर्मपुद्गलों को वेदन करने के लिए निषेचन (कर्मदलिकों का वर्गीकरण) करना, उदयावलिका में स्थापित करना 'उपचय' कहा जाता है। 'उदीरणा' 'वेदना' और 'निर्जरा' का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। उदोरणा प्रादि में सिर्फ तीन प्रकार का काल-उदीरणा आदि चिरकाल तक नहीं रहते, अतएव उनमें सामान्यकाल नहीं बताया गया है। उदयप्राप्त कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन-प्रस्तुत कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन के प्रश्न को पुनः दोहराने का कारण वेदन के हेतुविशेष (विशिष्ट कारणों) को बतलाना है।' शंका आदि पदों की व्याख्या-वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने अपने अनन्त-ज्ञानदर्शन में जिन तत्त्वों को जान कर निरूपण किया, उन तत्वों पर या उनमें से किसी एक पर शंका करना-'कौन जाने यह यथार्थ है या नहीं ?' इस प्रकार का सन्देह करना शंका है। एकदेश से या सर्वदेश से अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। तप, जप, ब्रह्मचर्य आदि पालन के फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव (बुद्धिभेद) उत्पन्न होना भेसमापन्नता है, अथवा 1. "पुन्वमणियं पि पच्छा जं मण्णइ तत्य कारणं अस्थि / पडिसेहो य अणला हेउविसेसोवलंमोति // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org