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________________ 68 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनध्यवसाय (अनिश्चितता) को भी भेदसमापन्नता कहते हैं, या पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से बुद्धि में भ्रान्ति (विभ्रम) पैदा हो जाना भी भेदसमापन्नता है / जो वस्तु जिनेन्द्र भगवान् ने जैसी प्रतिपादित की है, उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत बुद्धि रखना या विपरीत रूप से समझना कलुष-समापन्नता है। कांक्षामोहनीय कर्म को हटाने का प्रबल कारण-कांक्षामोहनीय कर्म के कृत, चय आदि तथा वेदन के कारणों की स्पष्टता होने के पश्चात् इसी सन्दर्भ में अगले सूत्र में श्री गौतमस्वामी उस कर्म को हटाने का कारण पूछते हैं। छद्मस्थतावश जब कभी किसी तत्त्व या जिनप्ररूपित तथ्य के विषय में शंका आदि उपस्थित हो, तब इसी सूत्र—'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं को हृदयंगम कर ले तो व्यक्ति कांक्षामोहनीय कर्म से बच सकता है यौर जिनाज्ञाराधक हो सकता है। जिन—'जिन' किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, वह एक पदवी है, गुणवाचक शब्द है। जिन्होंने प्रकृष्ट साधना के द्वारा अनादिकालीन रागद्वेष, अज्ञान, कषाय आदि समस्त पात्मिक विकारों या मिथ्यावचन के कारणों पर विजय प्राप्त करली हो, वे महापुरुष 'जिन' कहलाते हैं, भले ही वे किसी भी देश, वेष, जाति, नाम आदि से सम्बन्धित हों। ऐसे वीतराग सर्वज्ञपुरुषों के वचनों में किसी को सन्देह करने का अवकाश नहीं है।' अस्तित्व-नास्तित्व-परिणमन चर्चा 7. [1] से नणं भंते ! अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ, नस्थित्तं नस्थित परिणमति ? हंता, गोयमा ! जाव परिणमति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, तथा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ? [7-1 उ.] हाँ, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। [2] जं त भंते ! अथित अस्थित्त परिणमति, नस्थित्त नत्थित्त परिणमति तं कि पयोगसा वीससा ? गोयमा ! फ्योगसा वि तं, वीससा वि तं। [7-2 प्र. भगवन् ! वह जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, सो क्या वह प्रयोग (जीव के व्यापार) से परिणत होता है अथवा स्वभाव से (विश्रसा)?' [7-2 उ.] गौतम ! वह प्रयोग से भी परिणत होता है और स्वभाव से भी परिणत होता है। [3] जहा ते भंते ! अस्थित्त अस्थित्ते परिणमइ तहा ते नस्थित नत्थित्त परिणमति ? जहा ते नत्थित्त नत्थित्ते परिणमति तहा ते अत्थित्त अस्थित्ते परिणमति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 52 से 54 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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