________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] {प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? उ.| गौतम ! पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि और सम्यगमिथ्या दृष्टि (मिश्र दृष्टि)। उनमें जो सम्यग्दृष्टि है, वे दो प्रकार के हैं, जैसे कि---असंयत और संयतासयत / उनमें जो संयतासयत हैं, उन्हें तोन क्रियाएँ लगती हैं। वे इस प्रकारप्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। उनमें जो असंयत हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानो क्रियासहित चार क्रियाएँ लगती हैं। जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा सम्यग्मियादृष्टि हैं, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं। मनुष्य-देव विषयक समानत्वचर्चा-- 10. [1] मणुस्सा जहा नेरइया (सु. 5) / नाणतं-जे महासरीरा ते ग्राहच्च प्राहारेति / जे अस्पतरोरा ते अभिक्खणं पाहारेति 4 / सेसं जहा ने रइयाणं जाव वेयणा / [10-1] मनुष्यों का आहारादिसम्बन्धित निरूपण नैरयिकों के समान समझना चाहिए। उनमें अन्तर इतना ही है कि जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुतर पुदगलों का आहार करते हैं, और वे कभी-कभी आहार करते हैं, इसके विपरीत जो अल्पशरोर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का पाहार करते हैं, और बार-बार करते हैं। शेष वेदनापर्यन्त सब वर्णन नारकों के समान समझना चाहिए। [2] मणस्सा णं भते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा! जो इण? सम8। से केणणं ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा--सम्मट्ठिो मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी। तत्य णं जे ते सम्पट्टिी ते तिविहा पणत्ता, तं जहा-संजता अस्संजता संजतासंजता य। तत्य गं जे ते संजता ते विहा पण्णता, त जहा-सरागसंजता य बोतरागसंजता य / तत्थ णं जे ते वीतरागसंजता ते णं अकिरिया / तत्य गंजे ते सरागसंजता ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पमत्तसंजता य अपमत्तसंजताय / तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजता तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जति / तत्थ गंजे ते पमतसंजता तेसि णं दो किरियानो कन्जंति, तं०-प्रारम्भिया य 1 मायावत्तिया य 2 / तत्थ णं जे ते संजतासंजता तेसि णं प्राइल्लामो तिन्नि किरियाओ कज्जति / अस्संजताणं चत्तारि किरियानो कज्जति-प्रार० 4 / मिच्छादिट्रीणं पंच। सम्मामिच्छादिटोणं पंच 5 / [10-2 अ.] "भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ?" [10-2 उ.] "गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.| भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? | उ.] गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं; वे इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, मिथ्यावृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि / उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-संयत, संयतासंयत और असंयत / उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सरागसंयत और वीतरागसंयत / उनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रियारहित हैं, तथा जो इनमें सरागसंयत हैं, वे भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org