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________________ 50 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है। उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं, उन्हें दो क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार---प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया। तथा उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें आदि की तीन क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी ओर मायाप्रत्यया। असंयतों को चार क्रियाएँ लगती हैं.-प्रारम्भिकी, पारियहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानो क्रिया। मिथ्यादष्टियों को पाँचों क्रियाएँ लगती हैं--प्रारम्भिकी, पारिग्रहिको, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया / सम्यमिथ्यादृष्टियों (मिश्रदृष्टियों) को भी ये पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 11. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 6) / नवरं वेयणाए नाणतंमायिमिच्छादिट्ठोउववनगा य अप्पवेदणतरा, अमायिसम्म हिट्ठोउववनगा य महावेयणतरागा भाणियन्दा जोतिस-वेमाणिया। [11] वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के माहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। विशेषता यह कि इनकी वेदना में भिन्नता है / ज्योतिष्क और वैमानिकों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे अल्पवेदना वाले हैं, और जो अमायी सम्यग्दृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे महावेदनावाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए / चौबीस दंडक में लेश्या की अपेक्षा समाहारादि विचार 12. सलेसा णं भंते ! नेरइया सव्वे समाहारगा? श्रोहियाणं, सलेसाणं, सुक्कलेसाणं, एएसिणं तिण्हं एक्को गमो। कण्हलेस-नीललेसाणं पि एक्को गमो, नवरं वेदणाए—मायिमिच्छादिट्ठीउववनगा य, प्रमायिसम्मविट्ठोउववष्णगा य भाणियन्वा / मणुस्सा फिरियासु सराग-वीयराग-पमत्तापमता ण भाणियव्वा / काउलेसाण वि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा प्रोहिए दंडए तहा भाणियव्वा / तेउलेसा पम्हलेसा जस्स अस्थि जहा ओहियो दंडनो तहा भाणियबा, नवरं मणुस्सा सरागा वोयरागा य न भागियव्वा / गाहा--- दुक्खाऽऽउए उदिपणे, आहारे, कम्म-वण्ण-लेसा य / समवेदण समकिरिया समाउए चेव बोद्धव्वा // 1 // [12 प्र.] भगवन् ! क्या लेश्या वाले समस्त नैरयिक समान आहार वाले होते है ? [12 उ.] हे गौतम ! औधिक (सामान्य), सलेश्य, एवं शुक्ललेश्या वाले इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए / कृष्णलेश्या और नीललेश्या वालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, किन्तु उनकी वेदना में इस प्रकार भेद है-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहने चाहिए। तथा कृष्ण लेश्या और नीललेश्या (के सन्दर्भ) में मनुष्यों के सरागसंयत, वीतरागसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (भेद) नहीं कहना चाहिए। तथा कापोतलेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए। भेद यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों को औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए। तेजोलेश्या ओर पद्मलेश्या वालों को भी औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इन मनुष्यों में सराग और वीतराग का भेद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वाले मनुष्य सराग ही होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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