________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] 339 76. एवं सुयअन्नाणपज्जवेहि वि / 176J इसी प्रकार श्रुतप्रज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए / 77. एवं विभंगनाणपज्जवेहि वि / | 77] विभंगज्ञान के पर्यायों का कथन भी इसी प्रकार है / 78, चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-प्रोहिदसणपज्जवेहि वि एवं चेव, नवरं जस्स जे अस्थि तं भाणियध्वं / ७८चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु श्रुतप्रज्ञानादि में से जिसमें जो पाया जाता है, वह कहना चाहिए। 76. केवलदसणपज्जवेहिं जहा केवलनाणपज्जवेहिं / [76] केवलदर्शन के पर्यायों का कथन केवलज्ञान के पर्यायों के समान जानना चाहिए। विवेचन-ज्ञान, प्रज्ञान और दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-आवरण के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण प्राभिनिबोधिकज्ञान की विशेषताओं को तथा उसके सूक्ष्म अविभाज्य अंशों को 'पाभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय' कहते हैं। वे अनन्त हैं, किन्तु क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उनका अनन्तत्व अवस्थित नहीं है। अतएव भिन्न-भिन्न समय की अपेक्षा वे चारों राशि रूप होते हैं। यही बात अन्य ज्ञान. अज्ञान और दर्शन के विषय में जाननी चाहिए। एकेन्द्रिय जीव में सम्यक्त्व न होने से उनमें आभिनिबोधिक, श्रुत एवं अवधिज्ञान नहीं होता, न विकलेन्द्रियों में अवधिज्ञान होता है। इसलिए प्राभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान के विषय में एकेन्द्रिय का और अवधिज्ञान के विषय में विकलेन्द्रिय का निषेध किया गया है। सभी जीवों की अपेक्षा आभिनिबोधिकज्ञान के सभी पर्यायों को एकत्रित किया जाए तो सामान्यादेश से भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा वे चारों राशिरूप होते हैं, क्योंकि क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसके पर्याय अनन्त होने पर भी अवस्थित होते हैं। विशेषादेश से एक काल में भी चारों राशिरूप होते हैं। केवलज्ञान के पर्यायों का अनन्तत्व अवस्थित होने से वे कृतयुग्म-राशिरूप ही होते हैं। केवलज्ञान के पर्याय अविभाग-परिच्छेद (अविभाज्य-अंश) रूप होते हैं। इसलिए वे एक ही प्रकार के हैं। उनमें विशेषता नहीं होती।' प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक शरीर सम्बन्धी विवरण 80. कति णं भंते ! सरीरमा पन्नता ? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा--ओरालिय जाव कम्मए। एत्थ सरीरगपदं निरवसेसं भाणियव्वं जहा पण्णवणाए / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 876, 877 2. पणवणासुत्तं भाग 1, सू. 901-24, पृ. 223-28 (श्री महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org