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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [175 [18-1] (भगवान् महावीर जहाँ विराजमान थे, वहाँ क्या हुआ ? यह शास्त्रकार बताते हैं-) 'हे गौतम!', इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अनगार को सम्बोधित करके कहा-'गौतम ! (आज) तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा।" [18-2] (गौतम-) भगवन् ! मैं (प्राज) किसको देखू गा ?' [भगवान्– गौतम ! तू स्कन्दक (नामक तापस) को देखेगा। [18-3 प्र.] (गौतम-) "भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से, और कितने समय बाद देखूगा?" [18-3 उ०] 'गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। जिसका वर्णन जान लेना चाहिए | उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था। इससे सम्बन्धित पूरा वृत्तान्त पहले के अनुसार जान लेना चाहिए। यावत्---उस स्कन्दक परिव्राजक ने जहाँ मैं हूँ, वहाँ-मेरे पास पाने के लिए संकल्प कर लिया है। वह अपने स्थान से प्रस्थान करके मेरे पास पा रहा है / वह बहुत-सा मार्ग पार करके (जिस स्थान में हम हैं उससे) अत्यन्त निकट पहुँच गया है / अभी वह मार्ग में चल रहा है / वह बीच के मार्ग पर है / हे गौतम ! तू अाज ही उसे देखेगा।' [18-4 प्र. फिर 'हे भगवन् !' यों कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिवाजक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर आगार (घर) छोड़कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ है ?' [18-4 उ०] 'हाँ, गौतम ! वह मेरे पास अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ है / ' 16. जाव च णं समणे भगव महावीरे भगवनो गोयमस्स एयमट्ठ परिकहेइ तावच से खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देसं हवमागते / [19] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी भगवान् गौतम स्वामी से यह (पूर्वोक्त) बात कह ही रहे थे, कि इतने में वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक उस स्थान (प्रदेश) में (भगवान् महावीर के पास) शीघ्र आ पहुँचे / 20. [1] तए णं भगव गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं प्रदूरपागयं जाणित्ता खिप्पामेव अन्भुट्ठति, खिप्पामेव पच्चुवगच्छइ, 2 जेणेव खंदए कच्चायणसगोते तेणेव उवागच्छइ, 2 ता खंदयं कच्चायणसगोतं एवं क्यासी.---'हे खंदया !, सागयं खंदया!, सुसागयं खंदया!, अणुरागयं खंदया!, सागयमणुरागयं खंदया ! / से नणं तुमं खंदया ! सायस्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खव पुच्छिए 'भागहा ! कि सअंते लोगे अणते लोगे ? एवं तं चेव' जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए / से नूणं खंदया ! प्रत्थे समत्थे ? हंता अस्थि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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