________________ 176] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगव गोयम एवं वयासी-से केस गं गोयमा ! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अट्ठ मम ताव रहस्सकडे हवभक्लाए, जनो णं तुम जाणसि ? / तए णं से भगव गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं बयासी–एवं खलु खंदया! मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे उत्पन्नणाण-वंसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपच्चप्पन्नमणागयवियाणाए सवण्णू सव्वदरिसी जेणं ममं एस अड्डे तव ताव रहस्सफडे हव्वमक्खाए,जनो णं ग्रहं जाणामि खंदया !! [3] तए णं से खंदए फच्चायणसगोते भगव गोयम एवं वयासी-गच्छामो णं पोयमा! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वदामो णमसामो जाव पज्जुवासामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [4] तए णं से भगव गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं सद्धि जेणेव समणे मग महावीरे तेणेव पहारेत्य गमणयाए। [20-1) इसके पश्चात् भगवान् गौतम कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को पास आया हुआ जानकर शीघ्र ही अपने प्रासन से उठे और शीघ्र ही उसके सामने गए; और जहाँ कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक था, वहाँ आए। स्कन्दक के पास आकर उससे इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक ! स्वागत है तुम्हारा, स्कन्दक! तुम्हारा सुस्वागत है ! स्कन्दक! तुम्हारा प्रागमन अनुरूप (ठीक समय पर-उचित-योग्य हुआ है / हे स्कन्दक ! पधारो ! आप भले पधारे ! (इस प्रकार श्री गौतमस्वामी ने स्कन्दक का सम्मान किया) फिर श्री गौतम स्वामी ने स्कन्दक से कहा-"स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्गन्थ ने तुम से इस प्रकार आक्षेपपूर्वक पूछा था कि हे मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? इत्यादि (सब पहले की तरह कहना चाहिए) / (पांच प्रश्न पूछे थे, जिनका उत्तर तुम न दे सके / तुम्हारे मन में शंका, कांक्षा प्रादि उत्पन्न हुए। यावत्-) उनके प्रश्नों से निरुत्तर होकर उनके उत्तर पूछने के लिए यहाँ भगवान के पास पाए हो / हे स्कन्दक ! कहो, यह बात सत्य है या नहीं ?" स्कन्दक ने कहा-"हाँ, गौतम ! यह बात सत्य है / [20-2 प्र.) फिर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार पूछा-"गौतम ! (मुझे यह बतलानो कि) कौन ऐसा ज्ञानी और तपस्वी पुरुष है, जिसने मेरे मन की गुप्त बात तुमसे शीघ्र कह दी; जिससे तुम मेरे मन की गुप्त बात को जान गए ?" [उ.] तब भगवान् गौतम ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-'हे स्कन्दक! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान् महावीर, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, अर्हन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञाता हैं, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं; उन्होंने तुम्हारे मन में रही हुई गुप्त बात मुझे शीघ्र कह दी, जिससे हे स्कन्दक ! मैं तुम्हारी उस गुप्त बात को जानता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org