________________ 174] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में तप-संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते (विराजमान) हैं। अत: मैं उनके पास जाऊँ, उन्हें वन्दना-नमस्कार करूं। मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को बन्दना-नमस्कार करके, उनका सत्कार-सम्मान करके, उन कल्याणरूप, मंगल रूप, देवरूप और चैत्यरूप भगवान् महावीर स्वामी की पर्यपासना करूँ, तथा उनसे इन और इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों (व्याख्याओं) आदि को पूछ। यो पूर्वोक्त प्रकार से विचार कर वह स्कन्दक तापस, जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ अाया। वहाँ आकर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला (कांचनिका), करोटिका (एक प्रकार की मिट्टी का बर्तन), आसन, केसरिका (बर्तनों को साफ करने का कपड़ा), त्रिगड़ी (छन्नालय), अंकुशक (वृक्ष के पत्तों को एकत्रित करने के अंकुश जैसा साधन), पवित्री (अंगूठी), गणेत्रिका (कलाई में पहनने का एक प्रकार का आभूषण), छत्र (छाता), पगरखी, पादुका (खड़ाऊं), धातु (गैरिक) से रंगे हुए वस्त्र (गेरुए कपड़े), इन सब तापस के उपकरणों को लेकर परिव्राजकों के आवसथ (मठ) से निकला / वहाँ से निकल कर त्रिदण्ड, कुण्डी, कांचनिका (रुद्राक्षमाला), करोटिका (मिट्टी का बना हुआ भिक्षापात्र), भूशिका (आसनविशेष), केसरिका, त्रिगडी, अंकुशक, अंगूठी, और गणेत्रिका, इन्हें हाथ में लेकर, छत्र और पगरखी से युक्त होकर, तथा गेरुए (धातुरक्त) वस्त्र पहनकर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से (बीचोबीच) निकलकर जहाँ कृतंगला नगरी थी, जहाँ छत्रपलाशक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उसी ओर जाने के लिए प्रस्थान किया। विवेचन--स्कन्दक का शंका-समाधानार्थ भगवान् की सेवा में जाने का संकल्प और प्रस्थानप्रस्तुत सूत्र में शंकाग्रस्त स्कन्दक परिव्राजक द्वारा भगवान् महावीर का कृतंगला में पदार्पण सुन कर अपनी पूर्वोक्त शंकाओं के समाधानार्थ उनकी सेवा में जाने के संकल्प और अपने तापसउपकरणों-सहित उस ओर प्रस्थान का विवरण दिया गया है। श्री गौतमस्वामी द्वारा स्कन्दक का स्वागत और परस्पर वार्तालाप 18. [1] 'गोयमा !' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-दच्छिसि णं गोयमा ! पुत्वसंगतियं / [2] कं भंते ! ? खंदयं नाम / [3] से काहे वा? किह वा ? केवच्चिरेण वा? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं 2 सावत्थो नाम नगरी होत्था / वण्णो / तत्थ णं सावत्थीए नगरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए णामं कच्चायणसगोत्ते परिव्वायए परिवसइ, तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमगाए / से य प्रदूराइते बहुसंपत्ते श्रद्धाणपडिवन्ने अंतरापहे वट्टइ / प्रज्जेव णं दच्छिसि गोयमा। [4] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं वंदइ नमसइ, 2 एवं वदासी—पहू गं भंते ! खंदए कच्चायणसगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराम्रो प्रणगारियं पव्वइत्तए ? हंता, पभू। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org