________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१०] [409 होती है। क्योंकि उत्कृष्ट दर्शनाराधक में चारित्र के प्रति तीनों प्रकार का प्रयत्न अविरुद्ध है / जहाँ उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, वहाँ उत्कृष्ट दर्शनाराधना अवश्य होती है, क्योंकि उत्कृष्ट चारित्र उत्कृष्ट दर्शनानुगामी होता है / रत्नत्रय की त्रिविध पाराधनाओं का उत्कृष्ट फल-उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना वाले कतिपय साधक उसी भव में तथा कतिपय दो (बीच में एक देव और एक मनुष्य का) भव ग्रहण करके मोक्ष जाते हैं। कई जीव कल्पोपपन्न या कल्पातीत देवलोकों में, विशेषत: उत्कृष्ट चारित्राराधना वाले एकमात्र कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। मध्यम ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना वाले कई जीव जघन्य दो भव ग्रहण करके उत्कृष्टतः तीसरे भव में (बीच में दो भव देवों के करके) अवश्य मोक्ष जाते हैं। इसी तरह जघन्यतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने वाले कतिपय जीव जधन्य तीसरे भव में, उत्कृष्टतः सात या पाठ भवों में अवश्यमेव मोक्ष जाते हैं। ये सात भव देवसम्बन्धी और पाठ भव चारित्रसम्बन्धी, मनुष्य के समझने चाहिए।' पुद्गल-परिणाम के भेद-प्रभेदों का निरूपण 19. कतिविहे गं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णते ? गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा--वण्णपरिणामे 1 गंधपरिणामे 2 रसपरिणामे 3 फासपरिणामे 4 संठाणपरिणामे 5 / [16 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? . [16 उ.] गौतम ! पुद्गलपरिणाम पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) वर्ण-परिणाम, (2) गन्ध-परिणाम, (3) रस-परिणाम, (4) स्पर्श-परिणाम और (5) संस्थानपरिणाम। 20. वण्णपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-कालवण्णपरिणामे जाव सुकिल्लवण्णपरिणामे / [20 प्र.] भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [20 उ] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा—कृष्ण (काला) वर्ण-परिणाम यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण-परिणाम / 21. एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामें पंचविहे, फासपरिणामे अट्टविहे / [21] इसी प्रकार के अभिलाप द्वारा गन्धपरिणाम दो प्रकार का, रसपरिणाम पांच प्रकार का और स्पर्शपरिणाम पाठ प्रकार का जानना चाहिए। 22. संठाणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचबिहे पण्णत्ते, तं जहा--परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव प्राययसंठाणपरिणामे / [22 प्र.] भगवन् ! संस्थान-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 419-420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org