________________ 62] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] हाँ, भगवन् ! देखते हैं / [प्र.] गौतम ! उन (दर्शकों) की दृष्टियां चारों ओर से उस नर्तकी पर पड़ती हैं न ? [उ.] हाँ, भगवन् ! पड़ती हैं। [प्र.] हे गौतम ! क्या उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की (किंचित् भी) थोड़ी या ज्यादा पीडा पहुँचाती हैं ? या उसके अवयव का छेदन करती हैं ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं। [प्र.] गौतम ! क्या वह नर्तकी दर्शकों को उन दृष्टियों को कुछ भी बाधा-पीड़ा पहुँचाती है या उनका अवयव-छेदन करती है ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं है / [प्र.] गौतम ! क्या (दर्शकों की) व दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किचित् भी वाधा या पीड़ा उत्पन्न करती हैं ? या उनके अवयव का छेदन करती हैं ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं। हे गौतम ! इसी कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि जीवों के प्रात्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और यावत् सम्बद्ध होने पर भी प्राबाधा या ब्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न ही अवयवों का छेदन करते हैं। विवेचन---नर्तको के दृष्टान्त से जीवों के आत्मप्रदेशों की निराबाध सम्बद्धता-प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (28) में नर्तकी के दृष्टान्त द्वारा एक आकाशप्रदेश में एकेन्द्रियादि जीवों के प्रात्मप्रदेशों की सम्बद्धता या अवयवछेदन के अभाव का निरूपण किया गया है।' कठिन शब्दों का अर्थ-आबाहं—ाबाधा-थोड़ो पोड़ा / वाबाह-व्यावाधा-विशेष पीड़ा। छविच्छेदं ---अवयवों का छेदन / अन्नमन्नबद्धा परस्पर बद्ध / अण्णमण्णपुडा परस्पर स्पृष्ट / अन्नमन्नघडत्ताए-परस्पर सम्बद्ध / नट्टिया--नर्तकी / सिंगारागारचारवेसा-शृगार का घर और सुन्दर वेष बालो / जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउसि-सैकड़ों मनुष्यों से आकुल (व्याप्त) तथा लाखों मनुष्यों से व्याप्त / सन्निवडियाओ-पड़ती हैं। पेच्छगा प्रेक्षक–दर्शक / उप्पाएंतिउत्पन्न करती हैं। बत्तीसतिविधस्स नदृस्स : व्याख्या बत्तीस प्रकार के नाटयों में से / इन बत्तीस प्रकार के नाटयों में से ईहामृग, ऋषभ, तुरग, नर, मकर, विहग, व्याल, किन्नर आदि के भक्तिचित्र नाम का एक नाट्य है। इसी प्रकार के अन्य इकतीस प्रकार के नाट्य राजप्रश्नीयसूत्र में किये हुए वर्णन के अनुसार जान लेने चाहिए। 1. वियाहपण्णतिसुतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 531-532 2. भगवती. विवेचन, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1912 3. भगवती. अ. वृत्ति, पब 527 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org