________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [63 एक आकाशप्रदेश में जघन्य-उत्कृष्ट जीवप्रदेशों एवं सर्व जीवों का अल्पबहत्व 29. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपदे जीवपदेसाणं, उक्कोसपदे जीवपदेसाणं सव्धजीवाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपदेसे जहन्नपदे जीवपदेसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्कोसपदे जीवपदेसा विसेसाहिया / / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। // एक्कारसमे सए दसमो उद्देसओ समत्तो॥११. 10 // [26 प्र. भगवन् ! लोक के एक प्राकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेशों, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेशों और समस्त जीवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? 26 उ.] गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जपन्यपद में रहे हए जीवप्रदेश सबसे थोड़े हैं, उनसे सर्वजीव असंख्यातगुणं हैं, उनसे (एक प्राकाशप्रदेश पर) उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेश विशेषाधिक हैं। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--जीवप्रदेशों और सर्वजीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत 26 वे सूत्र में भगवान ने लोक के एक अाकाशप्रदेश पर जघन्य एवं उत्कृष्ट पद में रहे हा जीवप्रदेशों तथा सर्वजीवों के अल्पबहत्व का निरूपण किया है। // ग्यारहवां शतक : दसवां उद्देशक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org