________________ 360] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8-2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि नैरयिक यावत् (अनन्तरो०, परम्परो०) और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं ? [8-2 उ.] गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी प्रथम समय ही हुआ है (उत्पत्ति में एक समय का भी व्यवधान नहीं पड़ा), वे (नैरयिक) अनन्तरोपपन्नक (कहलाते हैं)। जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी दो, तोन आदि समय हो चुके हैं, (अर्थात --प्रथम समय के सिवाय द्वितीयादि समय हो गए हैं, वे (नरयिक) परम्परोपपन्नक (कहलाते) हैं और जो नैरयिक जीव नरक में उत्पन्न होने के लिए (अभी) विग्रहगति में चल रहे हैं, वे (नरयिक) अनन्तर-परम्परानुपपन्न क (कहलाते) हैं। इस कारण से हे गौतम ! नैरयिक जीव यावत् अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं / 9. एवं निरंतरं जाव वेमाणिया / [9] इसी प्रकार (यह पाठ) निरन्तर यावत् वैमानिक (तक कहना चाहिए) / विवेचन–अनन्तरोपपन्नक-- जिनकी उत्पत्ति में समय ग्रादि का अन्तर (व्यवधान) नहीं है, अर्थात् जिन्हें उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है, वे / परम्परोपपन्नक-जिन्हें उत्पन्न हुए दो-तीन ग्रादि समय हो गए हों, वे / अनन्तर-परम्परानुपपन्नक—जिनकी उत्पत्ति न तो भव के प्रथम समय में हुई है और न ही द्वितीयादि समयों में, ऐसे विग्रहगति-समापनक जीव अनन्तर-परम्परानुपपन्नक कहलाते हैं / नैरयिक जीव जब विग्रहगति में होते हैं.' तब पूर्वोक्त दोनों प्रकार की उत्पत्ति का अभाव होता है। अनन्तरोपपन्नकादि चौवीस दण्डकों में आयुष्यबंध-प्ररूपणा 10. प्रणतरोक्वन्नगा णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति ? तिरिक्ख-मणुस्स-देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाउयं पकरेंति / [10 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक, नैरीयक का आयुष्य बाँधते हैं, अथवा तिर्यञ्च का, मनुष्य का या देव का प्रायुष्य वाँधते हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे नैरयिक का प्रायुष्य नहीं बाँधते, यावत् (तिर्यञ्च का, मनुष्य का एवं) देव का आयुष्य भी नहीं बाँधते / 11. परंपरोववनगाणं भते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति / [11 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक नैरयिक, क्या नैरपिक का प्रायुष्य बाँधते हैं, यावत् क्या देवायुष्य बाँधते हैं ? [11 उ.] गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, वे तिर्यञ्च का प्रायुष्य बाँधते हैं, मनुष्य का आयुष्य भी बाँधते हैं, (किन्तु) देवायुष्य नहीं बाँधते / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 633 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org