________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [359 और तीसरे समय में तिरछे वाव्ययकोण में रहे अपने उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार तोन समय की विग्रहगति होती है। यही नैरपिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों (एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय) की शीघ्रगति और शीघ्रगति का विषय कहा गया है।' एकेन्द्रिय जीवों को चार समय को विग्रहगति-इस प्रकार समझनी चाहिए.जीव की गति श्रेणी के अनुसार होती है। अतः सनाडी से बाहर रहा हुया कोई एकेन्द्रिय जीव जब दूसरे भव में जाता है, तब पहले समय में बसनाडी से बाहर अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है। दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रविष्ट होता है। तीसरे समय में ऊँचा (ऊर्वलोक में) जाता है और चौथे समय में प्रसनाडी से निकल कर दिशा में नियत-उत्पत्तिस्थान में जाता है। यह बात सामान्यतया अधिकांश एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई है; और एकेन्द्रिय जीव बहुधा इसी प्रकार गति करते हैं, अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय की विग्रह गति भी सम्भव है / वह इस प्रकार---पहले समय में सनाडी से बाहर, वह अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है / दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है। चौथे समय में वहाँ से दिशा को प्रोर जाता है और पांचवें समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जाता है / इस प्रकार पांच समय की विग्रह गति भी कही गई है। ___ कठिनशब्दार्थ--सोहा-शीघ्र, आउटेज्जा-सिकोडे / उणिमिसियं-खुली हुई / विविखण्णंखोली हुई। चौवीस दण्डकों में अनन्तरोपपन्नकादि प्ररूपणा 8. [1] नेरइया णं भंते ! कि अणंतरोववन्नगा, परंपरोक्वनगा, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि? गोयमा ! नेरइया अणंत रोववनगा वि, परंपरोववनगा वि, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि / [8-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैयिक अनन्तरोपपन्नक हैं, परम्परोपपन्नक हैं, अथवा अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं ? [8-1 उ.] गौतम ! नरयिक अनन्तरोपपत्रक भी हैं, परम्परोपपन्नक भी हैं और अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जे णं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते ण नेरइया परंपरोक्वन्नगा, जेणं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपरप्रणुववन्तमा / से तेणढणं जाव अणुववन्नगा वि / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति. पत्र 632 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2279-2280 2. वही, हिन्दी विवेचन भा. 5, पृ. 2280 3. विदिसाउ दिसि पढमे, बीए पइ सरइ नाडिमझमि। उददं तदए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचमए।। --प. बत्ति, पत्र 632 4. भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. 5, पृ. 2280 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org