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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [361 12. अणंतरपरंपरप्रणववनगा णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं प० पुच्छा। गोयमा! नोनेरच्याउयं पकरेंति. जाब नो देवाउयं पकरति / [12 प्र.] भगवन् ! अनन्तर-परम्परानुपपन्नक नैरयिक, क्या नैरयिक का प्रायुष्य बाँधते हैं ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! वे नै रयिक का प्रायुष्य नहीं बाँधते, यावत् (तिर्यञ्च का, मनुष्य का या) देव का आयुष्य नहीं बाँधते / 13. एवं जाव वेमाणिया, नवरं चिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोक्वनगा चत्तारि वि आउयाई पकरेति / सेसं तं चेव / [13] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यबन्ध का कथन करना चाहिए।) विशेषता यह है कि परम्परोपपन्नक पञ्चेन्द्रिय तिर्यत्रयोनिक और मनुष्य नारकादि, चारों प्रकार का अर्थात् चारों में से किसी भी एक का अायुष्य बाँधते हैं। शेष (सभी कथन) पूर्ववत् (करना चाहिए / ) विवेचन-निष्कर्ष-अनन्तरोपपन्नक और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक जीव नरकादि चारों गतियों का प्रायुष्य नहीं बाँधते; क्योंकि उस अवस्था में उस प्रकार के कोई अध्यवसाय (परिणाम) नहीं होते / परिणामे बन्धः' इस सिद्धान्तानुसार उस समय चारों गति के जीवों के प्रायुष्यबन्ध नहीं होता / परम्परोपपन्नक नैरयिक जीव एवं देव अपना ग्रायुष्य छह मास शेष रहते तिर्यञ्च या मनुष्य का आयुष्यबन्ध करते हैं। परम्परोपपन्नक मनुष्य और तिर्यञ्च तो चारों ही गति का आयुष्य बाँधते हैं / अपने प्रायु के तृतीयादि भाग में, या कोई-कोई छह महीने शेष रहते आयुष्य बाँधते हैं।' चौवीस दण्डकों में अनन्तर-निर्गतादि-प्ररूपणा 14. [1] नेरइया गं भंते ! कि अणंतरनिगया परंपरनिग्गया अणंतरपरंपर अनिरगया? गोयमा ! नेरइया णं अणंतरनिग्गया विजाव अणंतरपरंपरग्रनिग्गया वि। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीव अनन्तर-निर्गत हैं, परम्पर-निर्गत हैं या अनन्तरपरम्परा-अनिर्गत हैं ? [14-1 उ.] गौतम ! नैरयिक अनन्तर-निर्गत भी होते हैं, परम्पर-निर्गत भी होते हैं और अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी होते हैं / [2] से केण?णं जाव अणिग्गता वि? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते गं नेरइया अणंतरनिग्गया, जेणं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया, जेणं नेरइया विगहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपरप्रणिगया / से तेण?णं गोयमा.! जाव अणिग्गता वि / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 633 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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