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________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] [533 पहला भंग अभव्य को अपेक्षा से है और दूसरा भंग भव्य विशेष की अपेक्षा से है। उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, क्योंकि क्रोधादि के उदय में प्रबन्धकता नहीं होती। अकषायी जीवों में तीसरा और चौथा, ये दो भंग पाए जाते हैं। तीसरा भंग उपशमक अकषायी में और चौथा भंग क्षपक अकषायी में पाया जाता है।' दसवां स्थान : सयोगी-अयोगी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 26. सजोगिस्स चउभंगो। [29] सयोगी जीवों में चारों भंग घटित होते हैं / 30. एवं मणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि / [30] इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव में चारों भंग पाये जाते हैं / 31. प्रजोगिस्स चरिमो। [31] अयोगी जीव में अन्तिम एक भंग पाया जाता है / विवेचन–सयोगी, त्रियोगी एवं अयोगी चातुर्भगिक चर्चा--सयोगी में भव्य, भव्य-विशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमश: चारों भंग पाये जाते हैं / अयोगी के वर्तमान में पापकर्म का बंध नहीं होता और न भविष्य में होगा, इस दृष्टि से उसमें एकमात्र चौथा भंग ही पाया जाता है। ग्यारहवां स्थान : साकार-अनाकारोपयुक्त जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 32. सागारोवउत्ते चत्तारि / [32] साकारोपयुक्त जीव में चारों ही भंग पाये जाते हैं / 33. अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा। [33] अनाकारोपयुक्त जीव में भी उक्त चारों भंग होते हैं। विवेचन साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीवों में चतुर्भगी-इन दोनों प्रकार के उपयोग वाले जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं / इसका स्पष्टीकरण पूर्ववत् जानना चाहिए।' चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध की चातुभंगिक-प्ररूपणा 34. नेरतिए णं भंते ! पावं कम्मं कि बंधो, बंधति, बंधिस्सति० ? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० पढम-बितिया। [34 प्र.| भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि (चतुर्भुगोयुक्त प्रश्न !) |34 उ. गौतम ! किसी नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा, इस प्रकार पहला और (पूर्ववत्) दूसरा भंग जानना चाहिए। 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 930 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 930 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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