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________________ 532] [व्याशाप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-सवेदी-अवेदो में चतुभंगी की चर्चा-जब तक वेदोदय रहता है, तब तक जीव मोहनीयकर्म का क्षय और उपशम नहीं कर सकता, इसलिए पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / अवेदी जीवों में स्ववेद उपशान्त हो, किन्तु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान की प्राप्ति न हो, तब तक बे मोहनीयकर्म को बांधते हैं और बांधेगे अथवा वहाँ से गिर कर भी बांधेगे। वेद क्षीण हो जाने पर पापकर्म बांधता है, किन्त सक्ष्मसम्परायादि अवस्था में नहीं बांधता / उपशान्तवेदी जीव सूक्ष्मसम्परायादि अवस्था में पापकर्म नहीं बांधता, किन्तु वहाँ से गिरने के बाद वांधता है / वेद का क्षय हो जाने पर सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में पापकर्म नहीं बांधता और आगे भी नहीं बांधेगा।' नवम स्थान : सकषायी-अकषायी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपरणा 24. सकसाईणं चत्तारि। [24] सकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं / 25. कोहकसायीणं पढम-बितिया। [25] कोधकषायी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाये जाते हैं / 26. एवं माणकसायिस्स वि, मायाकसायिस्स वि / [26] इसी प्रकार मानकषायी तथा मायाकषायी जीबों में भी ये दोनों भंग पाये जाते हैं। 27. लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा। [27] लोभकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 28. अकसायी गं भंते ! नीचे पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्भेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / प्रत्येगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति। 28 प्र.] भगवन् ! क्या अकषायी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि प्रश्न / [28 उ.] गौतम ! किसी प्रकषायी जीव ने (भूतकाल में पापकर्म) बांधा था, किन्तु अभी नहीं बांधता है, मगर भविष्य में बांधेगा तथा किसी जीव ने बांधा था, किन्तु अभी तक नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा / विवेचन-सकषायो-अकषायी जीवों में चतुर्भगो चर्चा सकषायी जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं। उनमें से प्रथम भंग अभव्यजीव की अपेक्षा से है। दूसरा भंग उस भव्य जीव की अपेक्षा से है, जिसका मोहनीयकर्म क्षय होने वाला है तथा उपशमक सूक्ष्मसम्पराय जीव की अपेक्षा से तीसरा भंग है और चौथा भंग क्षपक सूक्ष्मसम्परायी जीव की अपेक्षा से है। इसी प्रकार लोभकषायी जीवों के विषय में भी पूर्वोक्त अपेक्षा से इन चारों भंगों की संभावना समझनी चाहिए। क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीवों में पहला और दूसरा ये दो ही भंग पाये जाते हैं, 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 930 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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