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________________ 112] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [10] एकेन्द्रियों के विषय में औधिक (सामान्य) जीवों की भांति कहना चाहिए। 11. जहा पाणादिवाते (सु. 7-10) तहा मुसावादे तहा प्रदिन्नादाणे मेहुणे परिगहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले एवं एते अट्ठारस, चउवीसं दंडगा भाणियन्वा / सेवं भंते ! सेवं भते ! ति भगवं गोतमे समणं भगवं जाव विहरति / [11] प्राणातिपात (क्रिया) के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक इन अठारह ही पापस्थानों के विषय में चौबीस दण्डक कहने चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है" यों कहकर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके यावत् विचरते हैं। विवेचन--चौबीस दण्डकों में अष्टादशधापस्थान क्रिया-स्पर्शप्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों में सामान्य जीवों, नैरयिकों तथा शेष सभी दण्डकों में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक की क्रिया के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से प्रश्नोत्तरों का निरूपण है। प्राणातिपातादि किया के सम्बन्ध में निष्कर्ष- (1) जीव प्राणातिपातादि की क्रिया स्वयं करते हैं. वे बिना किये नहीं होती। (2) ये क्रियाएँ मन, वचन या काया से स्पष्ट होती हैं। (3) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, विना किये नहीं लगती। फिर भले ही वह क्रिया मिथ्यात्वादि किसी कारण से की जाएँ, (4) क्रियाएँ स्वयं करने से लगती हैं, दुसरे के (ईश्वर, काल प्रादि के) करने से नहीं लगती, (5) ये क्रियाएँ अनुक्रमपूर्वक कृत होती हैं / कुछ शब्दों की व्याख्या-मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे अरति और विषयानुराग को रति कहते हैं। लड़ाई-झगड़ा करना कलह है, असद्भूत दोषों को प्रकट रूप से जाहिर करना 'अभ्याख्यान' और गुप्तरूप से जाहिर करना या पीठ पीछे दोष प्रकट करना पैशुन्य है। दूसरे को निन्दा करना पर-परिवाद है, मायापूर्वक झूठ बोलना मायामृषावाद है, श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्यादर्शन है, वही शल्यरूप होने से मिथ्यादर्शनशल्य है।' रोह अनगार का वर्णन 12. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी रोहे नामं अणगारे पगतिभट्टए पगतिमउए पगतिविणीते पगति उवसंते पगति पतणुकोह-माण-माय-लोभे मिदुमद्दवसंपन्ने अल्लोणे भद्दए विणोए समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाण अहोसिरे झाणकोदोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तए णं से रोहे नामं प्रणगारे जातसड्ढे जाव' पज्जुवासमाणे एवं वदासी-- |12] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (शिष्य) रोड नामक अनगार थे। वे प्रकृति से भद्र, प्रकृति से मृदु (कोमल), प्रकृति से विनीत, प्रकृति से 1. भगवतीसुत्र अ. वत्ति, पत्रांक 80 2. 'जाव' पद से प्रथम उद्देशक के उपोद्घात में वर्णित श्री गौतमवर्णन में प्रयुक्त 'जायसंसाए जायकोउहले इत्यादि समस्त विशेषणरूप पद यहां समझ लेने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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