________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६ ] उपशान्त, अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले, अत्यन्त निरहंकारता-सम्पन्न, गुरु समाश्रित (गुरु-भक्ति में लीन), किसी को संताप न पहुँचाने वाले, विनयमूर्ति थे / वे रोह अनगार ऊर्ध्वजानु (घुटने ऊपर करके) और नीचे की ओर सिर झुकाए हुए, ध्यान रूपी कोष्ठक (कोठे) में प्रविष्ट, संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर के समीप विचरते थे। तत्पश्चात् वह रोह अनगार जातश्रद्ध होकर यावत् भगवान् को पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले विवेचन-रोह अनगार और भगवान से प्रश्न पूछने की तैयारी-प्रकृति से भद्र एवं विनीत रोह अनगार उत्कुटासन से बैठे ध्यान कोष्ठक में लीन होकर तत्त्वविचार कर रहे थे, तभी उनके मन में कुछ प्रश्न उद्भूत हुए, उन्हें पूछने के लिए वे विनयपूर्वक भगवान् के समक्ष उपस्थित हुए; यही वर्णन प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत किया गया है / रोह अनगार के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर 13. पूटिव भंते ! लोए ? पच्छा अलोए ? पुटिव अलोए ? पच्छा लोए ? रोहा ! लोए य प्रलोए य पुटिव पेते, पच्छा पेते, दो वि ते सासता भावा, अणाणुयुन्वी एसा रोहा ! / [13 प्र.] भगवन् ! पहले लोक है, और पोछे अलोक है ? अथवा पहले अलोक और पीछे लोक है? / [13 उ.] रोह ! लोक और अलोक, पहले भी हैं और पीछे भी हैं। ये दोनों ही शाश्वतभाव हैं / हे रोह ! इन दोनों में यह पहला और यह पिछला', ऐसा क्रम नहीं है। 14. पुठिय भंते ! जोवा ? पच्छा अजीवा ? पुब्धि प्रजोवा ? पच्छा जोवा ? जहेव लोए य अलोए य तहेव जोवा य अजोवा य / [14 प्र.] भगवन् ! पहले जीव और पीछे अजीव है, या पहले अजीव और पीछे जीव है ? [14 उ.] रोह ! जैसा लोक और प्रलोक के विषय में कहा है, वैसा ही जीवों और अजीवों के विषय में समझना चाहिए। 15. एवं भवसिद्धिया' य अभवसिद्धिया य, सिद्धी प्रसिद्धी, सिद्धा प्रसिद्धा / [15] इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभव सिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के विषय में भी जानना चाहिए। 16. पुविध भंते ! अंडए ? पच्छा कुक्कुडी ? पुन्धि कुक्कुडो ? पच्छा अंडए ? रोहा! से गं अंडए कतो? भगवं! तं कुक्कुडोतो। 1. भवसिद्धिया ---भविष्यतीति भवा, भव सिद्धिः निर्वत्तियेषां ते, भव्या इत्यर्थः / भविष्य में जिनकी सिद्धि-मुक्ति होगी, वे भव्य भव सिद्धिक होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org