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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [153 वह वहाँ उत्पन्न हो जाता है, तब एकान्तसुख (साता) रूप वेदना वेदता है, कदाचित् दुःख (असाता) रूप वेदना वेदता है। [2] एवं जाब थणियकुमारेसु / [8-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 6. जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाएसु उववज्जित्तए पुच्छा। गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे, सिय अपवेदणे; एवं उववज्जमाणे वि; आहे गं उववन्ने भवति ततो पच्छा वेमाताए वेदणं वेदेति / [प्र.] भगवन् ! जो जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य है, (उसके सम्बन्ध में भी) यही पृच्छा है। [9 उ.] गौतम ! वह (पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य) जीव इस भव में रहा हुआ कदाचित् महावेदनायुक्त और कदाचित् अल्पवेदनायुक्त होता है, इसी प्रकार वहाँ उत्पन्न होता हुआ भी वह कदाचित् महावेदना और कदाचित् अल्पवेदना से युक्त होता है और जब वहाँ उत्पन्न हो जाता है, तत्पश्चात् वह विमात्रा (विविध प्रकार) से वेदना वेदता है। 10. एवं जाव मणुस्सेसु / [10] इसी प्रकार का कथन यावत् मनुष्यपर्यन्त करना चाहिए / 11. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु (सु. 8[1]) / [11] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में (अल्पवेदना-महावेदना-सम्बन्धी) कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के महावेदना-अल्पवेदना के सम्बन्ध में प्ररूपणानारकादि दण्डकों में उत्पन्न होने योग्य जीव क्या यहाँ रहता हुआ, वहाँ उत्पन्न होता हुआ या वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् महावेदना वाला होता है ? इस प्रकार के प्रश्नों का सापेक्षशैली से प्रस्तुत पंचसूत्री (सू. 7 से 11 तक) में समाधान किया गया है। निष्कर्ष--नरकोत्पन्नयोग्य जीव यहाँ रहा हुआ कदाचित् महावेदना और कदाचित् अल्पवेदना से युक्त होता है, वहाँ उत्पन्न होता भी इसी तरह होता है, किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के बाद नरकपालादि के असंयोगकाल में या तीर्थंकरों के कल्याणक-अवसरों पर कदाचित् सुख के सिवाय एकान्त दुःख ही भोगता है / दस भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव पूर्वोक्त दोनों अवस्थाओं में पूर्ववत् होते हैं, किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् प्रहारादि के प्रा पड़ने के सिवाय कदाचित् दुःख के सिवाय एकान्तसुख ही भोगते हैं, पृथ्वीकाय से लेकर मनुष्यों तक के जीव पूर्वोक्त दोनों अवस्थाओं में पूर्ववत् ही होते हैं, किन्तु उस-उस भव में उत्पन्न होने के पश्चात् विविध प्रकार (विमात्रा) से वेदना वेदते हैं।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 290-291 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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