________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९]] [375 10000 वर्ष, द्वीन्द्रिय की 12 वर्ष, त्रीन्द्रिय की 49 दिन, चतुरिन्द्रिय की 6 मास की उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है। क्षुल्लक-भवग्रहण का प्राशय-अपनी-अपनी काय और जाति में जो छोटे-से-छोटा भव हो, उसे क्षुल्लकभव कहते हैं। एक अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म निगोद के 65536 क्षुल्लकभव होते हैं, एकश्वासोच्छ्वास में 17 से कुछ अधिक क्षुल्लकभव होते हैं। पृथ्वीकाय के एक मुहूर्त में 12824 क्षल्लकभव होते हैं। अप्काय से चतरिन्द्रिय जीवों तक का देशबन्ध जघन्य 3 समय कम क्षल्लकभव ग्रहण तक है / क्योंकि उनमें भी वैक्रियशरीर नहीं होता। औदारिक शरीर के सर्वबन्ध और देशबन्ध का अन्तर-काल--समुच्चय जीवों की अपेक्षा औदारिक शरीरबन्ध का सामान्य अन्तर–सर्वबन्ध का अन्तर--तीन समय कम मल्लकभव ग्रहण पर्यन्त बताया है, उसका प्राशय यह है कि कोई जीव तीन समय की विग्रहगति से औदारिकशरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो वह विग्रहगति के दो समय में अनाहारक रहता है, और तीसरे समय में सर्वबन्धक होता है। यदि क्षुल्लकभव तक जीवित रह कर मृत्यु को प्राप्त हो गया और प्रौदारिक शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो वहाँ पहले समय में वह सर्वबन्धक होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का सर्वबन्ध के साथ जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहण होता है। उत्कृष्ट अन्तर समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम का बताया है, उसका आशय यह है कि कोई जीव मनुष्य आदि गति में अविग्रहमति से पाकर उत्पन्न हुआ। वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबन्धक रहा / तत्पश्चात् पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, वहाँ से वह 33 सागरोपम की स्थितिवाला नैरयिक हुग्रा, अथवा अनुत्तरविमानवासी सर्वार्थसिद्ध देव हुआ। वहाँ से च्यव (या मर) कर वह तीन समय की विग्रहगति द्वारा आकर औदारिकशरीरधारी जीव हुआ। वह जीव विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में औदारिकशरीर का सर्वबन्धक रहा / विग्रहगति में जो वह अनाहारक दो समय तक रहा था, उनमें से एक समय पूर्वकोटि के सर्वबन्धक के स्थान में डाल दिया जाए तो वह पूर्वकोटि पूर्ण हो जाती है, उस पर एक समय अधिक बचा हुआ रहता है। यों सर्वबन्ध का परस्पर उत्कृष्ट अन्तर एक समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम होता है। औदारिक शरीर के देशबन्ध का अन्तर-जघन्य एक समय है, क्योंकि देशबन्धक मर कर अविग्रह से प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर पुनः द्वितीयादि समयों में देशबन्धक हो जाता है / इस प्रकार देशबन्धक का देशबन्धक के साथ अन्तर जघन्यतः एक समय का होता है। उत्कृष्टत: अन्तर तीन समय अधिक 33 सागरोपम का है। क्योंकि देशबन्धक मर कर 33 सागरोपम को स्थिति के नैरयिकों या देवों में उत्पन्न हो गया। वहाँ से च्यवकर तीन समय की विग्रहगति से औदारिक शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार विग्रहमति में दो समय तक अनाहारक रहा, तीसरे समय में सर्वबन्धक हुप्रा और फिर देशबन्धक हो गया। इस प्रकार देशबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर 3 समय अधिक 33 सागरोपम का घटित होता है। आगे के तीन सूत्रों में एकेन्द्रियादि का कथन करते हुए प्रौदारिकशरीरबन्ध का अन्तर विशेषरूप से बताया गया है / / प्रकारान्तर से प्रौदारिकशरीरबन्ध का अन्तर-कोई एकेन्द्रिय जीव तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हुआ, तो वह विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में सर्वबन्धक हुआ। फिर तीन समय कम क्षुल्लकभव-प्रमाण आयुष्य पूर्ण करके एकेन्द्रिय के सिवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org