________________ 374] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 9. समस्त जीवों द्वारा अपने एकेन्द्रियादि पूर्वरूप को छोड़ कर अन्य रूपों में उत्पन्न हो या रह कर, पुनः उसी अवस्था (रूप) में आने पर औदारिकशरीर-प्रयोगबन्धान्तर-काल की सीमा / 10. औदारिकशरीर के देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों का अल्प-बहुत्व / प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के पाठ कारण-जिस प्रकार प्रासादनिर्माण में द्रव्य, वीर्य, संयोग, योग, (मन-वचन-काया का व्यापार), शुभकर्म (का उदय), प्रायुष्य, भव (तिर्यंच-मनुष्यभव) और काल (तृतीय-चतुर्थ-पंचम आरा), इन कारणों की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार औदारिकशरीरबन्ध में भी निम्नोक्त 8 कारण अपेक्षित हैं-(१) सवीर्यता-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति, (2) सयोगता-योगायुक्तता (3) सद्रव्यता-जीव के तथारूप औदारिकशरीरयोग्य तथाविध पुद्गलों--(द्रव्यों) की विद्यमानता (४)प्रमाद-शरीरोत्पत्तियोग्य विषय-कषायादि प्रमाद; (५)कर्मतिर्यञ्चमनुष्यादि जातिनामकर्म, (6) योग-काययोगादि; (7) भवतिर्यञ्च एवं मनुष्य का अनुभूयमान भव, और (8) मायुष्य-तिर्यञ्च और मनुष्य का प्रायुष्य / इन 8 कारणों से उदयप्राप्त औदारिकशरीरप्रयोग-नामकर्म से औदारिकशरीर-प्रयोग-बन्ध होता है / प्रस्तुत प्रसंग में मूल प्रश्न है-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध के कारणभूत कर्मोदय के सम्बन्ध में, अतः इस प्रश्न का उत्तर तो यही होना चाहिए--ौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से यह होता है; किन्तु मूलपाठ में जो 8 कारण बताए हैं, वे इस मुख्य कारण-नामकर्म के सहकारी कारण हैं, जो औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध में आवश्यक हैं; यही इस सूत्र का आशय है।। प्रोदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के दो रूप : सर्वबन्ध, देशबन्ध-जिस प्रकार घृतादि से भरी हुई एवं अग्नि से तपी हुई कड़ाही में जब मालपूना डाला जाता है, तो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल ग्रहण करता (खींचता) है, तत्पश्चात् शेष समयों में वह घृतादि को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है; उसी प्रकार यह जीव जब पूर्वशरोर को छोड़ कर अन्य शरीर को धारण करता है, तब प्रथम समय में उत्पत्तिस्थान में रहे हुए उस शरीर के योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है। इस प्रकार का यह बन्ध–'सर्वबन्ध' है। तत्पश्चात् द्वितीय आदि समयों में शरीरयोग्य पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है; अत: यह बन्ध देशबन्ध है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध सर्वबन्ध भी होता है, देशबन्ध भी / जो सर्वबन्ध होता है, वह केवल एक समय का होता है / मालपूए के पूर्वोक्त दृष्टान्तानुसार जब वायुकायिक या मनुष्यादि जीव वैक्रियशरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के वाद औदारिकशरीर का एक समय तक सर्वबन्ध करता है, तत्पश्चात् दूसरे समय में वह देशबन्ध करता है। दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाए तो इस अपेक्षा से देशबन्ध जघन्य एक समय का होता है। औदारिकशरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तीन पल्योपम की है। उसमें से जीव प्रथम समय में सर्वबन्धक और उसके बाद एक समय कम तीन पल्योपम तक देशबन्धक रहता है। इस दृष्टि से समस्त जीवों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति के अनुसार एक समय तक वे सर्वबन्धक और फिर देशबन्धक रहते हैं / जैसेएकेन्द्रिय जीवों को उत्कृष्ट आयुस्थिति 22 हजार वर्ष की है। उसमें से 1 समय तक वे सर्वबन्धक और फिर 1 समय कम 22 हजार वर्ष तक वे देशबन्धक रहते हैं। उत्कृष्ट देशबन्ध-जिसकी जितनी उत्कृष्ट प्रायुष्यस्थिति होती है, उसका देशबन्ध उसमें एक समय कम होता है। जैसे-अप्काय की 7000 वर्ष, तेजस्काय को 3 अहोरात्र, वनस्पतिकाय की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org