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________________ 376] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र द्वीन्द्रियादि जाति में उत्पन्न हो जाय तो वहाँ भी क्षुल्लकभव की स्थिति पूर्ण करके अविग्रहगति द्वारा पुनः एकेन्द्रिय जाति में उत्पन्न हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्धक रहता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है। कोई पृथ्वीकायिक जीव, अविग्रहगति द्वारा हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्धक होता है / वहाँ 22,000 वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण करके मर कर त्रसकायिक जीवों में उत्पन्न हो, और वहाँ भी संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोषम की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्ण करके पुन: एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो तो वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबन्धक होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोपम होता है। कोई पृथ्वीकायिक जीव मर कर पृथ्वीकायिक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए और वहाँ से मर कर पुन: पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो तो उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है। उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्तकाल-अनन्त उत्सपिंगो-अवसर्पिणोप्रमाण काल होता है / अर्थात्-अनन्तकाल के समयों में उत्सर्पिणी-अवपिणी काल के समयों का अपहार किया (भाग दिया जाए तो अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी काल होता है। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक है, इसका तात्पर्य है-अनन्त काल के समयों में लोकाकाश के प्रदेशों द्वारा अपहार किया जाए, तो अनन्तलोक होते हैं। वनस्पतिकाय को कायस्थिति अनन्तकाल की है, इस अपेक्षा से सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है / यह अनन्तकाल असंख्य पुद्गलपरावर्तन-प्रमाण है / पुद्गलपरावर्तन प्रादि की व्याख्या-दस कोटाकोटि अद्धा पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। दस कोटाकोटि सागरोपमों का एक प्रवपिणीकाल होता है; और इतने ही काल का एक उत्सपिणीकाल होता है / ऐसी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का एक पुद्गलपरावर्तन होता है। असंख्यात समयों की एक प्रावलिका होती है। उस प्रावलिका के असंख्यात समयों का जो असंख्यातवां भाग है उसमें जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्तन यहाँ लिये गए हैं। इनकी संख्या भी असंख्यात हो जाती है, क्योंकि असंख्यात के असंख्यात भेद हैं। प्रौदारिकशरीर के बन्धकों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सर्वबन्धक जीव इसलिए हैं कि वे उत्पत्ति के समय ही पाए जाते हैं। उनसे प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति में और सिद्धगति में जीव अबन्धक होते हैं / उनसे देशबन्धक इसलिए असंख्यातगुणे हैं कि देशबन्ध का काल असंख्यातगुणा है।' वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से तत्सम्बन्धित विचारणा 51. वेउब्वियसरीरप्पयोगबघेणं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुबिहे पन्नत्ते, तं जहा-एगिदियवेउरिवयसरीरप्पयोगबध य, पंचिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबधेय। [51 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [51 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) एकेन्द्रिय वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध और (2) पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 400 से 403 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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