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________________ 208] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ (मुनि) मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ (देवलोक में) दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा (मैथुन-सेवन) नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वश में करके या आलिंगन करके उनके साथ भी परिचारणा नहीं करता। परन्तु वह देव वैक्रिय से स्वयं अपने ही दो रूप बनाता है। (जिसमें एक रूप देव का और एक रूप देवी का बनाता है / ) यों दो रूप बनाकर वह, उस वैक्रियकृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है। इस प्रकार एक जीव एक ही समय में दो वेदों का अनुभव (वेदन) करता है, यथा-स्त्री-वेद का और पुरुषवेद का। इस प्रकार परतीर्थिक की वक्तव्यता कहनी चाहिए, और बह-एक जीव एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद का अनुभव करता है, यहाँ तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह इस प्रकार कैसे हो सकता है ? अर्थात् क्या यह अन्यतीथिकों का कथन सत्य है ? / [1 उ.] हे गौतम ! वे अन्यतोथिक जो यह कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-यावत् स्त्रीवेद और पुरुषवेद; (अर्थात्-एक ही जीव एक समय में दो बेदों का अनुभव करता है;) उनका वह कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि कोई एक निम्रन्थ जो मरकर, किन्हीं महद्धिक यावत् महाप्रभावयुक्त, दुरगमन करने की शक्ति से सम्पन्न, दीर्घकाल की स्थिति (प्राय वाले देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होता है, ऐसे देवलोक में वह महती ऋद्धि से युक्त यावत् दशों दिशाओं में उद्योत करता हुआ, विशिष्ट कान्ति से शोभायमान यावत् अतीव रूपवान् देव होता है। और वह देव वहाँ दूसरे देवों के साथ, तथा दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके, परिचारणा करता है और अपनी देवियों को वश में करके उनके साथ भी परिचारणा करता है; किन्तु स्वयं वैक्रिय करके अपने दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, (क्योंकि) एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद का ही अनुभव करता है। जब स्त्रीवेद को वेदता (अनुभव करता) है, तब पुरुषवेद को नहीं वेदता; जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय स्त्रीवेद के स्त्रीवेद के उदय होने से पुरुषवेद को नहीं वेदता और पुरुषवेद का उदय होने से स्त्रीवेद को नहीं वेदता / प्रतः एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद को ही वेदता है / जब स्त्रीवेद का उदय होता है, तब स्त्री, पुरुष की अभिलाषा करती है और जब पुरुषवेद का उदय होता है, तब पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है / अर्थात्-(अपने-अपने वेद के उदय से) पुरुष और स्त्री परस्पर एक दूसरे की इच्छा करते हैं। वह इस प्रकार-स्त्री, पुरुष की और पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है। विवेचन-देव की परिचारणा-सम्बन्धी चर्चा--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों का परिचारणा के सम्बन्ध में असंगत मत देकर, उसका निराकरण करते हुए भगवान् के मत का प्ररूपण किया गया है। सिद्धान्त-विरुद्ध मत-भूतपूर्व निग्रंथ मरकर देव बनता है, तब वह न तो अन्य देव-देवियों के साथ परिचारणा करता है और न निजी देवियों के साथ / वह वैक्रियलब्धि से अपने दो रूप बनाकर परिचारणा करता है और इस प्रकार एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, दोनों का अनुभव करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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