________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [209 सिद्धान्तानुकल मत-वह देव अन्य देव-देवियों तथा निजी देवियों के साथ परिचारणा करता है किन्तु वैक्रिय से अपने ही दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, क्योंकि सिद्धान्तत: एक जीव एक समय में एक ही वेद का अनुभव कर सकता है, एक साथ दो वेदों का नहीं / जैसे परस्परनिरपेक्ष–विरुद्ध वस्तुएँ एक ही समय में स्थान पर नहीं रह सकतीं, यथा-अन्धकार और प्रकाश, इसी तरह स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों परस्परविरुद्ध हैं, अतः ये दोनों एक समय में एक साथ नहीं वेदे जाते / ' उदकगर्भ प्रादि की कालस्थिति का विचार 2. उदगगन्भे णं भंते ! 'उदगगम्भे' त्ति कालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जनेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / . [2 प्र.] भगवन् ! उदकगर्भ (पानी का गर्भ) उदकगर्भ के रूप में कितने समय तक रहता है ? [2 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदकगर्भ उदकगर्भरूप में रहता है। 3. तिरिक्खजोणियगम्भे णं भते ! 'तिरिक्खजोणियगब्भे ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छ राई / [3 प्र.] भगवन् ! तिर्यग्योनिकगर्भ कितने समय तक तिर्यग्योनिकगर्भरूप में रहता है ? [3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष तक तिर्यग्योनिकगर्भ तिर्यग्योनिकगर्भ-रूप में रहता है। 4. मणस्सीगन्भे णं भते ! 'मणुस्सीगम्भे ति कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं बारस संबच्छराई / [4 प्र.] भगवन् ! मानुषीगर्भ, कितने समय तक मानुषीगर्भरूप में रहता है ? [4 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक मानुषीगर्भ मानुषीगर्भरूप में रहता है। 5. काय-भवत्थे गंभते ! 'काय-भवत्थे त्ति कालो केबच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं चउवोसं संवच्छराई / [5 प्र.] भगवन् ! काय-भवस्थ कितने समय तक काय-भवस्थरूप में रहता है ? [5 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक काय-भवस्थ कायभवस्थ के रूप में रहता है। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org