________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [233 [30 प्र.] भगवन् ! यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च) संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से ? [30 उ.] गौतम ! वे दोनों (पर्याप्तक और अपर्याप्तक सं. पं. ति.) से आकर उत्पन्न होते हैं। 31. संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं घेतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिपलिओवमद्वितीएसु उववज्जिज्जा। [31 प्र.] भगवन् ! यदि संख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? {31 उ.] गौतम! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संशी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। 32. ते णं भंते ! अवसेसं जहा एयस्स चेव सन्निस्स रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स पढमगमए, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उषकोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं तिन्नि पलिनोवमाई पुवकोडिपुहत्तमन्भहियाई; एवतियं / [पढमो गमनो]। [32 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [32 उ.] (गौतम ! ) रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले इस संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के प्रथम गमक के समान सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है। शेष सब कथन यावत् भवादेश तक पूर्ववत जानना। काल की अपेक्षा से-जघन्य दो अन्तमूहर्त्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] 33, सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीनो चहिं अंतोमुत्तेहि अहियाप्रो। [बोप्रो गमओ] / [33] यदि वही (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जीव, जघन्य काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो. तो वही पर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष कालादेश अन्तर्म हत और उत्कृष्ट चार अन्तम हर्त अधिक चार पूर्वकोटि, (इतने काल तक यावत गमनागमन करता है / ) [द्वितीय गमक] ____34. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववण्णो, जहन्नेणं तिपलिप्रोवमट्टितोएसु, उक्कोसेण वि तिपलिनोवमद्वितीएसु उवव० / एस चेव वत्तव्वया, नवरं परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org