________________ 486] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मिसमिसाता हुमा क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित हो उठा ! किन्तु अब वह श्रमण-निग्रंथों के शरीर को कुछ भो पीडा या उपद्रव, पहुँचाने अथवा छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुअा। 85. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समहि निगहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडि चोइज्जमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिज्जमाणं, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारिज्जमाणं अठेहि य हेऊहि य जाब कीरमाणं आसुरुत्तं जाव मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंथाणं सरोरगस्त किचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पा० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ प्रत्येगइया पायाए अवकमंति, आयाए अ० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिपयाहिणं करेंति; क. 2 वदंति नमंसंति, वं० 2 समणं भगवं महावीरं उत्रसंपज्जित्ताणं विहरति / प्रत्येगइया आजीविया थेरा गोसाले चेव मंखलिपुत्तं उपसंपज्जित्ताणं विहरति / [5] जब ग्राजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा, प्रतिस्मारणा और प्रत्युपचार से तथा अर्थ, हेतु व्याकरण एवं प्रश्नोत्तर इत्यादि से यावत् मंखलिपुत्र गोशालक को निरुत्तर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् मिसमिसायमान होकर क्रोध से प्रज्वलित हो उठा, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को तनिक भो पीडित या उपद्रवित नहीं कर सका एवं उनका छविच्छेद नहीं कर सका, तब कुछ प्राजाविक स्थविर गोशालक मंखलिपुत्र के पास से (बिना कहे-सुने) अपने आप हो चल पडे / वहाँ से चल कर वे श्रमण भगवान महावीर के पास पा गए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा को और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / तत्पश्चात् वे श्रमण भगवान् महावोर का प्राश्रय स्वोकार कर के विचरण करने लगे। कितने हो ऐसे प्राजोविक स्थविर थे, जो मंखलिपुत्र गोशालक का पाश्रय ग्रहण करके ही विचरते रहे। विवेचन –प्रस्तुत तीन सूत्रों (83 से 85 तक) गोशालक के पतन एवं पराजय से सम्बन्धित तीन वृत्तान्तों का निरूपण है (1) गोशालक के साथ धर्मचर्चा करने का भगवान् का आदेश पाकर श्रमणनिर्ग्रन्थों ने गोशालक के साथ धर्मचर्चा को और विभिन्न युक्तियों, तर्कों और हेतुप्रों से उसे निरुतर कर दिया। (2) निरुत्तर एवं पराजित गोशालक उन श्रमणनिग्रन्थों पर अत्यन्त रुष्ट हुना, किन्तु अब वह क्रोध करके ही रह गया / उसमें श्रमणों को कुछ बाधा-पीड़ा पहुँचने या उनका अंग भंग कर देने का सामर्थ्य नहीं रहा। (3) जब प्राजीविक स्थविरों ने गोशालक को निरुत्तर तथा श्रमणों का बाल भी बांका कर सकने में असमर्थ हुना देखा तो गोशालक का आश्रय छोड़ कर वे भगवान् के प्राश्रय में प्रा कर रहने लगे। कुछ आजीविक स्थविर गोशालक के पास ही रहे / ' .-. --. . .... ... -- -- 1. वियाहपण्यत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 719-720 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org