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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३ ] [ 335 [3] से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जाततेयंसि पक्खिवेज्जा, से नणं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता,मसमसाविज्जइ। - [14-3] (भगवान्-) 'जैसे, (कल्पना करो,) कोई पुरुष सूखे धास के पूले (तृण के मुट्ठ) को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपत्र ! वह सखे घास का पुला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल ज ता है? (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! वह शीघ्र ही जल जाता है। [4] से जहानामए के पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिदु पविखवेज्जा, से नणं मंडियधुत्ता ! से उदयबिदू तत्तंसि अयकवल्ल सि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता, विद्ध समागच्छद। [14-4] (भगवान्-) (कल्पना करो) जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के कड़ाह पर पानी की बूद डाले तो क्या मण्डितपुत्र! तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जलबिन्दु अवश्य ही शीघ्र नष्ट हो जाती है ? (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! वह जलबिन्दु शीघ्र नष्ट हो जाती है। [5] से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे बोसट्टमाणे समभरघउत्ताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति / अहे गं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं नावं सतासवं सच्छिदं प्रोगाहेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तेहि आसवहारेहि प्रापूरेमाणी 2 पुष्णा पुण्णप्यमाणा बोलट्टमाणा बोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हता, चिति / अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सवतो समंता पासवद्दाराई पिहेइ, 2 नावाउस्सिंचणएणं उदयं उस्सिंचिज्जा, से नणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणसि खिप्पामेव उड्ढं उद्दाति ? हंता, उद्दाति / एवामेव मंडियपुत्ता! प्रत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स इरियासमियरस जाव गुत्तबंभयारिस्स, पाउत्तं गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस तुयट्टमाणस्स, पाउत्तं वत्थ-पडिगह-कंबल-पादपुछणं गेण्हमाणस्स, निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया' सुहमा इरियावहिया किरिया कज्जइ। सा पढमसमयबद्धपुट्टा वितियसमयवेतिता ततियसमयनिजरिया, सा बद्धा पुट्टा उदोरिया वेदिया निज्जिण्णा सेयकाले प्रकम्म चावि भवति / से तेणठेणं मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरिया भवति / [14-5] (भगवान्-) (मान लो,) 'कोई एक सरोवर है, जो जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी से भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है ?' (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है / (भगवान्-) अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे छिद्रों वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को उतार दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों (पानी आने के 1. पाठान्तर—वेमाया के स्थान में कहीं 'संपेहाए' पाठ है। जिसका अर्थ है--स्वेच्छा से / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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