________________ 336 ] | व्याख्याप्राप्तिसूत्र द्वारों) द्वारा पानी से भरती-भरती जल से परिपूर्ण हो जाती है ? पूर्णमात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से वह लबालब भर जाती है ? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो कर रहती है ? / (मण्डितपुत्र---) हाँ, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से जल से व्याप्त होकर रहती है। यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों ओर से बन्द कर (ढक) दे, और वैसा करके नौका की उलीचनी (पानी उलीचने के उपकरण विशेष) से पानी को उलीच दे (जल के उदय----ऊपर उठने को रोक दे,) तो हे मण्डितपुत्र! नौका के पानी को उलीच कर खाली करते ही क्या वह शीघ्र ही पानी के ऊपर आ जाती है ? (मण्डितपुत्र--) हाँ भगवन् ! (वैसा करने से, वह तुरन्त) पानी के ऊपर आ जाती है / (भगवान् -) हे पण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत हुए, ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त (सुरक्षित), उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, करवट बदलने बाले तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन रजोहरण (आदि धर्मोपकरणों को सावधानी (उपयोग) के साथ उठाने और रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेष-(आँख की पलक झपकाने) मात्र समय में विमात्रापूर्वक सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया लगती है ! वह (क्रिया) प्रथम समय में बद्ध-स्पष्ट द्वितीय समय में वेदित और तृतीय समय में निर्जीर्ण (क्षीण) हो जाती है। (अर्थात्-) वह बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण क्रिया भविष्यकाल में अकर्मरूप भी हो जाती है। इसी कारण से, हे मण्डितपत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब वह जीव सदा के लिए) समितरूप से भी कम्पित नहीं होता, यावत् उनउन भावों में परिणत नहीं होता, तब अन्तिम समय में (जोवन के अन्त में) उसकी अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। विवेचन–सक्रिय-प्रक्रिय जीवों को अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 11 से 14 तक) में प्रतिपादित किया गया है, कि जब तक जीव में किसी न किसी प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल किया है, तब तक उसकी अन्तक्रिया नहीं हो सकती / सूक्ष्मक्रिया से भी रहित होने पर जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है / अन्तक्रिया के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने क्रमश: निम्नोक्त तथ्यों का प्ररूपण किया है-(१) जब तक जीव कम्पन, चलन, स्पन्दन, भ्रमण, क्षोभन, उदीरण आदि विविध क्रियाएँ करता है, तब तक उस जीव को अन्तक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि इन क्रियाओं के कारण जीव पाराभ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तमान होकर नाना जीवों को दुःख पहुँचाता एवं पीड़ित करता है। अतः क्रिया से कर्मबन्ध होते रहने के कारण वह अकर्मरूप (क्रियारहित) नहीं हो सकता। (2) जीव सदा के लिए क्रिया न करे, ऐसी स्थिति आ सकती है, और जब ऐसी स्थिति आती है, तब वह सर्वथा क्रियारहित होकर अन्तक्रिया (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। (3) जब क्रिया नहीं होगी तब क्रियाजनित आरंभादि नहीं होगा, और न ही उसके फलस्वरूप कर्मबन्ध होगा, ऐसी अकर्मस्थिति में अन्तक्रिया होगी हो। (4) इसे स्पष्टता से समझाने के लिए दो दृष्टान्त दिये गये हैं--(१) सूखे घास के पूले को अग्नि में डालते ही वह जल कर भस्म हो जाता है (2) तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली गई जल की बूद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org